भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यहाँ एक-एक पक्ष में केवल चैतन्य ही मायादि शब्दों से उपास्य कहा गया है, द्वितीय पक्ष में मायाविशिष्ट ब्रह्म मायादिशब्द से कहा गया है। साकार देवताविग्रह सर्वत्र ही शक्ति विशिष्ट ब्रह्मरूप से ही उपास्य होता है। भगवतीविग्रह में भी भाषण, दर्शन अनुकम्पा आदि व्यावहार देखा ही जाता है, फिर उसमें जड़त्व की कल्पना किस तरह की जा सकती है। विराट, हिरण्यगर्भ, अव्याकृत, ब्रह्म विष्णु रुद्रादिकों के स्वरूप में एक-एक गुणों की प्रधानता है, माया गुणत्रय का ही साम्यावस्था रूप है, वह केवल शुद्ध ब्रह्म के आश्रित है। माया विशिष्ट तुरीयब्रह्म ही भगवती की उपासना में ग्राह्य है, यह दिखलाने के लिये माया, प्रकृति आदि शब्दों से कहीं-कहीं भगवती को बोधित किया गया है। ‘मैत्रायणी श्रुति’ में कहा है-
इन वचनों से स्पष्ट कहा गया है। कि तीनों गुणों की साम्यावस्थरूपा प्रकृति परब्रह्म में रहती है, उसी के अंश सत्त्वादि गुण हैं, तत्तद्गुणों से विशिष्ट ब्रह्मओं अंशभूत है, मूलप्रकृति-उपलक्षित ब्रह्म शुद्ध तुरीयस्वरूप ही है। ‘‘त्वं वैष्णवी शक्ति’’ इत्यादि स्थलों में ब्रह्मरूपिणी भगवती का ही शक्तिरूप से वर्णन किया गया है। उपासनास्थल के अतिरिक्त माया आदि शब्दों से भी कहीं-कहीं शक्ति का ग्रहण किया गया है अथवा यह समझना चाहिये कि जगत्कारण परब्रह्म माया-ब्रह्म उभयरूप है। कहीं मायोपसर्जन ब्रह्म की उपासना है। यहाँ ऐसा है, वहाँ शक्तिसहायभूता है-
कहीं पर ब्रह्मोपसर्जन माया की उपासना है। इसीलिये माया, प्रकृति आदि शब्दों से भगवती की उपासना का विधान मिलता है। यहा पक्ष सर्वतन्त्रो को मान्य है। ‘‘शिवेन सहिता देवीं भावयेद्भुवनेश्वरीम्’’[2] दोनों ही पक्ष में ब्रह्म का चिदंश ही उपासना में आता है। इसीलिये माया पर मुक्ति के अनन्वयी होने का या अश्रद्धेय होने का कोई भी दोष लागू नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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