भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार बुद्धियों को भगवान का यही उद्देश्य है कि तुम गोष्ठ यानी साध्य-साधनात्मक संसार की ओर मत जाओं, बल्कि पतीन्-सम्पूर्ण बुद्धियों के साक्षी परब्रह्म परमात्मा का ही आश्रय लो। बुद्धियाँ अपने चरम आश्रयभूत साक्षी का अवलम्बन न करके संसार में प्रवृत्त होती हैं और फिर उसी में फँस जाती हैं। अतः भगवान उन्हें उपदेश करते हैं कि तुम संसार से विरत होकर अधिष्ठान परमात्मा की ओर ही जाओ। वह आत्मा जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, वह यह जानता है कि इस समय मेरी बुद्धि सात्त्विक है, इस समय राजस है और इस समय मोहग्रस्त है। इस प्रकार जो काम, संकल्प, विचिकित्सा, धी, ह्री आदि अन्तःकरण के धर्मों को जानता है, जो जाग्रत और स्वप्न में प्रमाता, प्रमाण एवं प्रमेयरूप त्रिपुटी का अवभासक है और सुषुप्ति में उनके अभाव को प्रकाशित करता है उस सर्वावभासक परमतत्त्व पर दृष्टि पहुँचने पर यह निखिल प्रपंच सहज ही में निवृत्त हो जाता है। किन्तु यह है अत्यन्त दुर्लभ; इसी से कहा है- “कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्त्वमिच्छन्।” ‘धीर’ शब्द का अर्थ है- ‘धियं ईरयति प्रेरयति इति धीरः’ अर्थात जो बुद्धि आदि कार्यकरण-संघात को आपे अधीन रखता है-स्वयं उसके अधीन नहीं होता। ऐसा कोई देहाभिमानी नहीं हो सकता। इसीलिये भगवान ने कहा है-‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।’ वह बुद्धि का प्रेरक नील, पीत आदि किसी रूपवाला नहीं है। वह तो अत्यन्त सूक्ष्म है। देखो, इन नील-पीतादि का प्रकाशक पहले तो सूर्य का प्रकाश देखा जाता है। जिस प्रकार नील-पीतादि रूपवान् है उसी प्रकार उन्हें प्रकाशित करने वाले सूर्य एवं अग्नि आदि के आलोक भी रूपवान् हैं; परन्तु अपने प्रकाश्य नील-पीतादि की अपेक्षा उनमें बहुत सूक्ष्म है। उस सौर आलोक का प्रकाशन चाक्षुष-ज्योति से होता है; वह रूपरहित है। इस प्रकार रूपरहित तत्त्व रूपवान् को प्रकाशित कर रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज