भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह भी अनुभव में आता है कि जो नेत्र ज्योति निर्दोष होती है वह आलोक को ठीक-ठीक प्रकाशित कर सकती है और जो सदोष होती है वह उसका ठीक-ठीक प्रकाशन नहीं कर सकती। किन्तु यह कौन जानता है कि नेत्र सदोष है या निर्दोष? इस बात को मन जानता है; चक्षु के पाटवापाटव का ज्ञाता मन है। मन में भी रूप नहीं है। इसी प्रकार मन के चांचल्यादि को जानने वाली बुद्धि है, और बुद्धि अपना कार्य अहंकारपूर्वक करती है; जैसे कि यह कहा जाता है कि ‘मैं अपनी बुद्धि द्वारा मन का निरोध करूँगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्धि इस ‘मैं’ का कारण है। यह ‘मैं’ अत्यन्त सूक्ष्य है। यदि हम कुछ काल बुद्धि आदि से रहित केवल ‘मैं’ का ही चिन्तन करें तो हमारे सामने ‘मैं’ और ‘मैं’ के साक्षी का भेद सुस्पष्ट हो जायगा। इस समय तो ‘मैं’ और चिदात्मा का अन्योन्याध्यास हो रहा है। जिस प्रकार तपे हुए लोहपिण्ड में अग्निरहित लोहपिण्ड और लोहपिण्ड रहित अग्नि का भान नहीं हो सकता उसी प्रकार इस समय हमें ‘मैं’ से रहित चेतन और चेतनरहित ‘मैं’ की प्रतीति नहीं हो सकती। सुषुप्ति में ‘मैं’ का अभाव रहता है। उस समय चिदात्मा ‘मैं’ के अभाव का प्रकाशक है। इस प्रकार वह स्पष्टतया ‘मैं’ के भाव और अभाव दोनों ही का प्रकाशक प्रतीत हो रहा है। इसी क्रम से हम उसे शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध के चरम अवभासक रूप से भी निश्चय कर सकते हैं। अतः विषयों की अवभासक पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों का अवभासक मन है, मन की प्रकाशिका बुद्धि है, बुद्धि का प्रेरक अहंकार है और इन मन, बुद्धि, अहंकार सभी का भासक चिदात्मा है। व्यवहार में देखते हैं कि गन्धाकाराकारितवृत्ति, रूपाकाराकारितवृत्ति, रसाकाराकारितवृत्ति, स्पर्शाकाराकारितवृत्ति और शब्दाकाराकारितवृत्ति-इन सब में परस्पर भेद है। इसी प्रकार इनको ग्रहण करने वाली इन्द्रियों में भी भेद है। इनके भेद और अभेद का विवेक करो। इनमें जो भेद है वही प्रपंच है और जो अभेद है वही परमार्थ है। उत्पन्न तथा नष्ट होने वाली गन्धवृत्ति, रसवृत्ति, स्पर्शवृत्ति आदि पृथक हैं परन्तु उन वृत्तियों की उत्पत्ति, स्थिति, नाश तथा उनके स्वरूपों का भासन करने वाला अखण्डबोध या निर्विकार भान सदा एकरस तथा एक ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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