भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः ये उसके स्वभाव ही है। यदि कहें कि समाधिकाल में वृत्तियों का निरोध हो जाने पर भी वह उस निर्वृत्तिक अन्तःकरण का ही भोक्ता रहता है तो ठीक नहीं, क्योंकि निर्वृत्तिक अन्तःकरण भोगोपयोगी नहीं है, क्योंकि भोग और सत्त्व-पुरुषान्यताख्यातिरूप पुरुषार्थ सम्पादन करने वाली अन्तःकरण रूप में परिणत हुई ही प्रकृति पुरुष की भोग्य हो सकती है। निर्वृत्तिक चित्त में तो ये दोनों ही बाते नहीं हैं। अतः समाधि अवस्था में पुरुष का कोई स्वभाव ही नहीं रहता। कोई भी भावरूप पदार्थ अपने स्वभाव को छोड़कर नहीं रह सकता। पुरुष भावरूप है, अतः समाधि-अवस्था में भी उसका सद्भाव रहने के कारण क्या हो सकते हैं? इस पर सिद्वान्ती कहता है- ‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्’ अर्थात समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाने पर द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है। तात्पर्य यह है कि भाव के दो रूप हैं- औपाधिक और अनौपाधिक। बौद्धबोध पुरुष का औपाधिक रूप है, अतः समाधि में उसका अभाव हो जाने पर भी पुरुष का निरुपाधिक अर्थात स्वाभाविक स्वरूप तो रहता ही है। यही मुख्य पौरुषेय-बोध है। यह पुरुष का स्वाभाविक चैतन्य ही वास्तविक दर्शन है। दृष्टि दो हैं-नित्या और अनित्या। ख्याति अनित्या दृष्टि है, यह उदयास्तमय शालिनी है। इसकी साक्षीभूता जो नित्या दृष्टि है उसी के विषय में श्रुति कहती है- “नहि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ अर्थात द्रष्टा की दृष्टि का लोप कभी नहीं होता। यही दीर्घा दृष्टि है और यही मुख्य भी है। इसी से भगवान् को अविलुप्तदृक् कहा है। यह दृष्टि समस्त अनित्य दृष्टियों की दृष्टि (साक्षिणी) है; अर्थात अनित्य दृष्टियों की दृष्टि और उनका द्रष्टा एक ही बात है। यहाँ ‘द्रष्टुः दृष्टिः’ यह कथन ऐसा ही है जैसे ‘राहोः शिरः’ अर्थात जिस प्रकार शिर राहु से तनिक भी भिन्न नहीं है उसी प्रकार यह दृष्टि भी दृष्टा से भिन्न नहीं है, अतः ‘द्रष्टु’ इस पद में जो षष्ठी है वह समानाधिकरण्य में है; अर्थात जो दृष्टि दृष्टा से अभिन्न है वही द्रष्टा की दृष्टि है और यदि व्यधिकरण-षष्टी मानकर अर्थ किया जाय तो इसके दो तात्पर्य होंगे- द्रष्टृजन्या दृष्टि या द्रष्टृ प्रकाशिका अर्थात द्रष्टृ विषयिणी दृष्टि। इनमें पहली द्रष्टा के आश्रित है और दूसरी द्रष्टा का आश्रय है तथा पहली अनित्या है औद दूसरी नित्या। इससे सिद्ध हुआ कि घटादि-दर्शन का आश्रय तो द्रष्टा है तथा उस द्रष्टा का जो दर्शन है, जिस दर्शन का विषय वह द्रष्टा है वही शुद्ध आत्मा है। वह दृष्टि क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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