भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी को कहीं-कहीं पौरुषेय दर्शन भी कहा है। बुद्धि में जो पुरुषत्व का आरोप होता है उसी के कारण बुद्धिनिष्ठ दर्शन पुरुष निष्ट-सा जान पड़ता है। तात्पर्य यह है कि बुद्धि में जो विवेक ज्ञान और शब्दादि ज्ञान है इनका अपने में आरोप करके यह पुरुष ‘अहं विवेकवान्’ और ‘अहम् शब्द-ज्ञानवान्’ प्रतीत होता है। वस्तुतः तो यह आरोप भी बुद्धि में ही है। पुरुष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ यह सन्देह होता है कि यदि यह आरोप बुद्धिनिष्ठ है तो इसकी पुरुष-निष्ठता प्रतीत नहीं होनी चाहिये, बुद्धि-निष्ठता ही अनुभूत होनी चाहिये। किन्तु बुद्धि, प्रकृति का विकार होने के कारण जड़ है, अतः यह आरोप अनुभव का विषय (दृश्य) ही होना चाहिये, अनुभवरूप नहीं होना चाहिये। परन्तु ऐसी बात तो है नहीं; इसलिये इसे बुद्धिनिष्ठ ही क्यों माना जाय? इसका उत्तर यह है कि यह बुद्धिनिष्ठ आरोप बुद्धि में पुरुषत्व की भ्रान्ति कराने के कारण बुद्धिनिष्ठ होने पर भी पुरुषनिष्ठ-सा जान पड़ता है; इसी से वस्तुतः वह आरोप अनुभव का विषय होने पर भी अनुभवरूप-सा प्रतीत होता है। इस प्रकार सिद्धान्ततः यही निश्चय हुआ कि बौद्ध बोध ही पौरुषेय बोध-सा प्रतीत होता है। पौरुषेय बौध बुद्धिबोध से भिन्न नहीं है। इसी से कहा है- ‘एकमेव दर्शनं ख्यातिरेव दर्शनम्’। यहाँ तत्तदाकारवृत्ति ही ‘ख्याति’ कही गयी है। व्युत्थान अवस्था में पुरुष ख्यात्याकार हो जाता है- ‘वृत्तिसारूप्यमितरत्र’। वृत्तियाँ शान्त, घोर और मूढभेद से तीन प्रकार की हैं, अतः व्युत्थानावस्था में पुरुष भी शान्त, घोर और मूढरूप हो जाता है। यह कथन लोकव्यवहारोपयुक्त दर्शन की दृष्टि से है। वास्तव में तो इस बौद्धबोध से व्यतिरक्ति पुरुष का स्वभावभूत चैतन्य ही पौरूषेय दर्शन है। यदि बौद्धबोध को ही पुरुष का स्वभाव माना जाय तो यह प्रश्न होता है कि समाधि-अवस्था में समस्त चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाने पर पुरुष का क्या स्वभाव रहता है? तात्पर्य यह है कि यदि उसका स्वभाव बौद्धबोध ही है तो उस अवस्था में समस्त बुद्धिवृत्तियों का निरोध हो जाने के कारण वह स्वभावशून्य होकर कैसे रहेगा? कारण, ऐसा कोई समय नहीं है जबकि पुरुष शब्दादि वृत्तियों में से किसी के साथ तादात्म्यापन्न न हो। समस्त वृत्तियाँ पाँच विभागों में विभक्त की गयी हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति; इनमें से किसी न किसी के साथ पुरुष का सारूप्य रहता ही है। जिस प्रकार अग्नि दाहकत्व-प्रकाशकत्व शून्य नहीं रहता उसी प्रकार पुरुष शान्त, घोर या मूढवृत्तियों से शून्य कभी नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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