भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वह द्रष्टा की स्वरूपभूता है। यहाँ ‘द्रष्टा’ शब्द से काल्पनिक द्रष्टा अभिप्रेत है। उस (काल्पनिक द्रष्टा) का आश्रय ही उसका पारमार्थिक स्वरूप है, जैसे रज्जु में अध्यस्त सर्प का रज्जु। वह दृष्टि कौन-सी है? इसका परिचय श्रुति इस प्रकार देती है- ‘सा द्रष्टुर्दृष्टिर्यया स्वप्ने पश्यति’ इत्यादि। इस प्रकार जिसके द्वारा स्वाप्निक पदार्थों की प्रतीति होती है वह दृष्टि आत्मस्वरूपा ही है। यहाँ शंका होती है कि उसके भी तो उत्पत्ति और नाश देखे जाते हैं; अतः वह भी अनित्या ही है। इस पर हमारा कथन यह है कि ऐसा मानना उचित नहीं, क्योंकि उस समय चक्षु आदि इन्द्रियाँ तो अज्ञान में लीन हो जाती हैं और अन्तःकरण विषयरूप हो जाता है। जाग्रदवस्था के हेतुभूत अविद्या, काम और कर्मों का क्षय तथा स्वप्नावस्था के हेतुभूत अविद्या, काम और कर्मों का उदय होने पर, जाग्रदवस्था में अपने-अपने अधिष्ठातृ देवता से अनुगृहीत भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न हुए भिन्न-भिन्न ज्ञानों के संस्कारों से संस्कृत हुआ अन्तःकरण ही स्वाप्निक-पदार्थों के रूप में परिणत हो जाता है, जिस प्रकार सिनेमा में अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित पट ही विशेष प्रकार के प्रकाश, गति और काँच से संयुक्त होकर नाना प्रकार की गतियाँ करता प्रतीत होता है। किन्तु उस समय (स्वप्न में) इन सबका दर्शन किसके द्वारा होता है? यदि कहो कि जिस प्रकार अनिर्वचनीय रूपादि उत्पन्न हुए हैं उसी प्रकार अनिर्वचनीय दृष्टि भी उत्पन्न हो जाती है तो यह हो नहीं सकता, क्योंकि प्रातिभासिक अनिर्वचनीय पदार्थ सदा ज्ञातसत्ताक ही होते हैं। उनका सर्वदा अपरोक्ष-ज्ञान हुआ करता है। किन्तु इन्द्रियाँ अज्ञानसात्ताक भी होती हैं, क्योंकि वे स्वयं अज्ञात रहकर भी वस्तु का प्रकाशन करने में समर्थ है। अतः अज्ञातसत्ताक होने के कारण उसका आरोप नहीं हो सकता; अतः स्वाप्निक रूप की दृष्टि शुद्ध आत्मा ही है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि यदि स्वाप्निक रूप की दृष्टि शुद्ध आत्मा ही है तो उसमें दृष्टि, श्रुति, विज्ञाति आदि भेद नहीं हो सकते, क्योंकि वह तो निर्विशेष अर्थात सामान्य रूप है। उसमें यह नामरूपात्मक भेद कैसे हो गया? इसका उत्तर यह है कि इन अनिर्वचनीय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का अनिर्वचनीय सम्बन्ध स्वप्रकाश आत्मा में अनिर्वचनीय श्रुति, अनिर्वचनीय मति एवं अनिर्वचनीय विज्ञाति आदि उत्पन्न कर देता है, जिस प्रकार एकरस प्रकाश भी नील-पीत, हरित काँचों के साथ संश्लिष्ट होने पर तत्तद्रूपवान प्रतीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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