गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। जिसमें अहंकार भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इसको मारते हुए भी नहीं मरता, न बंधन में पड़ता है। टिप्पणी- ऊपर- ऊपर से पढ़ने पर यह श्लोक मनुष्य को भुलावे में ड़ालने वाला है। गीता के अनेक श्लोक काल्पनिक आदर्श का अवलंबन करने वाले हैं। उसका सच्चा नमूना जगत् में नहीं मिल सकता और उपयोग के लिए भी जिस तरह रेखा- गणित में काल्पनिक आदर्श आकृतियों की आवश्यकता है उसी तरह धर्म व्यवहार के लिए है। इसलिए इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया जाता है- "जिसकी अहंता नष्ट हो गयी है और जिसकी बुद्धि में लेश मात्र भी मैल नहीं है, उसके लिए कह सकते हैं कि वह भले ही सारे जगत को मार डाले; परंतु जिसमें अहंता नहीं है उसे शरीर ही नहीं है। जिसकी बुद्धि विशुद्ध है वह त्रिकालदर्शी है। ऐसा पुरुष तो केवल एक भगवान है। वह करते हुए भी अकर्ता है, मारते हुए भी अहिंसक है। इससे मनुष्य के सामने तो एक न मारने का और शिष्टाचार- शास्त्र का ही मार्ग है।" ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। कर्म की प्रेरणा में तीन तत्त्व विद्यमान हैं- ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता। कर्म के अंग तीन प्रकार के होते हैं- इंन्द्रिय, क्रिया और कर्ता। टिप्पणी- इसमें विचार और आचार का समीकरण है। पहले मनुष्य कर्तव्य कर्म[1], उसकी विधि[2] को जानता है- परिज्ञाता बनता है। इस कर्म प्रेरणा के प्रकार के बाद वह इंद्रियों[3] द्वारा क्रिया का कर्ता बनता है। यह कर्म संग्रह है। ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत:। ज्ञान, कर्म और कर्ता गुण भेद के अनुसार तीन प्रकार के हैं। गुण गणना में उनका जैसा वर्णन किया जाता है। वैसा सुन- सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। जिसके द्वारा मनुष्य समस्त भूतों में एक ही अविनाशी भाव को और विविधता में एकता को देखता है उसे सात्त्विक ज्ञान जान। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज