गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 29

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
दसवां अध्‍याय

सोमप्रभात
12-1-31

भगवान कहते हैं-दोबारा भक्‍तों के हित के लिए कहता हूं, सो सनु। देव और महर्षि गण तक मेरी उत्‍पत्ति नहीं जानते हैं, क्‍योंकि मेरे लिए उत्‍पन्‍नता ही नहीं है। मैं उनकी और अन्‍य सब की उत्‍पत्ति का कारण हूँ। जो ज्ञानी मुझे अजन्‍मा और अनादि रूप में पहचानते हैं, वे सब पापों से मुक्‍त हो जाते हैं, क्‍योंकि परमेश्‍वर को इस रूप में जानने और अपने को उसकी प्रजा अथवा उसके अंश की भाँति पहचानने पर मनुष्‍य की पापवृत्ति नहीं रह सकती। पापवृत्ति का मूल ही निज संबंधी अज्ञान है।

जैसे प्राणी मुझसे पैदा हुए हैं, वैसे उनके भिन्‍न- भिन्‍न भाव भी, जैसे क्षमा, सत्‍य, सुख, दु:ख, जन्‍म-मृत्‍यु भय-अभय आदि भी मुझसे उत्‍पन्‍न हुए हैं। यह सब मेरी विभूति है। जो यह जान लेते हैं, उनमें सहज ही समता उत्‍पन्‍न हो जाती है, क्‍योंकि वे अहंता को छोड़ देते हैं। उनका चित्त मुझमें ही पिराया हुआ रहता है, वे मुझे अपना सब कुछ अर्पण करते हैं, परस्‍पर मेरे विषय में ही वार्तालाप करते हैं, मेरा ही कीर्तन करते हैं और संतोष तथा आनंद से रहते हैं। इस प्रकार जो मुझे प्रेमपूर्वक भजते हैं और मुझमें ही जिनका मन रहता है, उन्‍हें मैं ज्ञान देता हूँ और उसके द्वारा वे मुझे पाते हैं।

तब अर्जुन ने स्‍तुति की- आप ही परब्रह्म हैं, परमधाम हैं, पवित्र हैं, ऋषि आदि आपको आदिदेव, अजन्‍मा, ईश्वर रूप से भजते हैं, ऐसा आप ही कहते हैं। हे स्‍वामी, हे पिता, आपका स्‍वरूप कोई जानता नहीं है, आप ही अपने को जानते हैं। अब मुझसे अपनी विभूतियां और साथ ही यह कहिये कि आपका चिंतन करते हुए मैं आपको कैसे पहचान सकता हूं?

भगवान ने जवाब दिया- मेरी विभूतियां अनंत हैं, उनमें से थोड़ी खास-खास तुमसे कह देता हूँ। सब प्राणियों के हृदय में रहा हुआ मैं हूँ। मैं ही उनकी उत्‍पत्ति, उनका मध्‍य और उनका अंत हूँ। आदित्‍यों में विष्‍णु मैं, उज्‍ज्‍वल वस्‍तुओं में प्रकाश देने वाला सूर्य मैं, वायुओं में मरीचि मैं, नक्षत्रों में चंद्र मैं, वेदों में सामवेद मैं, देवों में इंद्र मैं, इंद्रियों में मन मैं, प्राणियों में चेतन- शक्ति मैं, रुद्र में शंकर मैं, यक्ष-राक्षसों में कुबेर मैं, दैत्‍यों में प्रह्लाद मैं, पशुओं में सिंह मैं, पक्षियों में गरुड़ मैं और छल करने वालों में द्यूत[1] भी मुझे ही जान। इस जगत में जो कुछ होता है, वह मेरी मरजी बिना हो ही नहीं सकता। अच्‍छा और बुरा भी मैं ही होने देता हूं, तभी होता है। यह जानकर मनुष्‍य को अभिमान छोड़ना चाहिए और बुरे से बचना चाहिए, क्‍योंकि भले-बुरे का फल देने वाला भी मैं हूँ। तू इतना जान कि यह सारा जगत मेरी विभूति के एक अंशमात्र से‍ स्थित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जुआ

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गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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