गीता माता -महात्मा गांधी
12 : राष्ट्रीय शालाओं में गीता
मगर अनिवार्यता के बारे में मेरा आग्रह कम हो जाता है, खासकर राष्ट्रीय शालाओं के संबंध में। यह सच है कि गीता विश्व-धर्म की एक पुस्तक है, फिर भी यह एक दावा है जो किसी पर लादा नहीं जा सकता। संभव है, कोई ईसाई, मुसलमान या पारसी इस दावे का विरोध करे और बाइबिल, कुरान या अवेस्ता के बारे में ऐसा ही दावा पेश करे। मुझें भय है कि हिंदू कहे जाने वालों के लिए भी गीता की शिक्षा अनिवार्य नहीं बनाई जा सकती है। कई सिख और जैन अपने आपको हिंदू मानते हैं? मगर संभव है, वे अपने बालक-बालिकाओं को अनिवार्य रूप से गीता के पढ़ाये जाने का विरोध करें। साम्प्रदायिक या जातीय शालाओं की बात ही दूसरी होगी। मसलन, एक वैष्णवशाला के लिए गीता को धार्मिक शिक्षा का अंग बनाना मेरी राय में बिलकुल उचित होगा। प्रत्येक स्वतंत्रशाला को हक है कि वह अपनी पढ़ाई का पाठ्यक्रम स्वयं निश्चित करे। मगर एक राष्ट्रीय शाला को तो स्पष्ट मर्यादाओं में रहकर काम करना पड़ता है। जहाँ अधिकार या हममें दस्तंदाजी नहीं होती, वहाँ अनिवार्यता का भी प्रश्न दावा नहीं उठता। एक खानगी पाठशाला में प्रवेश करने का कोई दावा नहीं कर सकता, मगर यह मानी हुई बात है कि राष्ट्र के प्रत्येक सदस्य को राष्ट्रीय शाला में जाने का अधिकार है। अतएव एक जगह जो बात प्रवेश की शर्त मानी जायगी, वही दूसरी जगह अनिवार्य न होगी। बाहरी दबाव से गीता कभी विश्व-व्यापिनी नहीं होगी। वह विश्व-व्यापिनी तो तभी होगी, जब उसके प्रशंसक उसे जबर्दस्ती दूसरों के गले न उतारकर स्वयं अपने जीवन द्वारा उसकी शिक्षाओं को मूर्तरूप देंगे। 18 मार्च, 1929 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज