गीता माता -महात्मा गांधी
4 : गीता-ध्यान
उसे गो-माता का रूप दिया हो तो भी काम चल सकता है। दूसरी तरह हो सके तो इसे मैं ज्यादा अच्छा समझता हूँ। हम हमेशा जो अध्याय बोलते हैं, उसमें से या किसी भी अध्याय के किसी भी श्लोक या किसी शब्द का ध्यान धरना ही उसका चिन्तवन करना है। गीता में जितने शब्द हैं, उतने ही उसके आभूषण हैं, और प्रियजनों के आभूषण का ध्यान करना भी उन्हीं का ध्यान धरने के बराबर है। यही बात गीता की है। लेकिन इसके सिवा किसी को और कोई ढंग मिल जाये तो भले ही वह उस ढंग से ध्यान धरे। जितने दिमाग, उतनी ही विविधता होती है। कोई दो व्यक्ति एक ही तरीके से एक ही चीज का ध्यान नहीं करते। दोनों के वर्णन और कल्पना में कुछ-न-कुछ फर्क तो रहेगा ही। छठे अध्याय के अनुसार जरा-सी भी की हुई साधना बेकार नहीं जाती, और जहाँ से रह गई हो, वहाँ से दूसरे जन्म में आगे चलती है। इसी तरह जिसमें कल्याण मार्ग की तरह मुड़ने की इच्छा तो जरूर हो, मगर अमल करने की शक्ति न हो, उसे ऐसा मौका जरूर मिलेगा, जिससे दूसरे जन्म में उसकी यह इच्छा दृढ़ हो। इस बारे में भी मेरे मन में कोई शंका नहीं है। मगर इसका यह अर्थ न किया जाये कि तब तो हम इस जन्म में शिथिल रहें, तो भी काम चलेगा। ऐसी इच्छा इच्छा नहीं है, या वह बौद्धिक है, मगर हार्दिक नहीं है। बौद्धिक इच्छा के लिए कोई स्थान ही नहीं है। वह मरने के बाद नहीं रहती; पर जो इच्छा दिल में पैठ जाती है, उसके पीछे प्रयत्न तो होना ही चाहिए। मगर कई कारणों से और शरीर की कमज़ोरी से संभव है कि यह इच्छा इस जन्म में पूरी न हो और इस तरह का अनुभव हमें रोज होता है। मगर इस इच्छा को लेकर जीव देह को छोड़ता है और दूसरे जन्म में इस जन्म की उपाधियां कम होकर यह इच्छा फलती है या ज्यादा मजबूत तो होती ही है। इस तरह कल्याणकृत लगातार आगे बढ़ता ही रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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