गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
अठारहवां अध्याय
संन्यासयोग
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृग्विधान्। भिन्न- भिन्न[1] होने के कारण समस्त भूतों में जिसके द्वारा मनुष्य भिन्न- भिन्न विभक्त भावों को देखता है। उस ज्ञान को राजस जान। यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्। जिसके द्वारा एक ही कार्य में बिना किसी कारण के सब आ जाने का भास होता है, जो रहस्य रहित और तुच्छ है वह तामस ज्ञान कहलाता है। नियतं सग्ङरहितमरागद्वेषत: कृतम्। फलेच्छारहित पुरुष का आसक्ति और राग- द्वेष के बिना किया हुआ नियत कर्म सात्त्विक कहलाता है। यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:। भोग की इच्छा रखने वाले जिस कार्य को ‘मैं करता हूं’ इस भाव से बड़े आयासपूर्वक करते हैं वह राजस कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखने में
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