गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 24

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
आठवां अध्‍याय

सोमप्रभात
29-12-30

अर्जुन पूछता है, ʻʻआपने पूर्णब्रह्म, अध्‍यात्‍म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ का नाम लिया, पर इन सबका अर्थ मैंने समझा नहीं। फिर आप कहते हैं कि आपको अधिभूत रूप से जानकर समत्‍व को प्राप्‍त हुए लोग मृत्‍यु के समय पहचानते हैं। यह सब मुझे समझाइये।ʼʼ

भगवान ने उत्तर दिया, ʻʻ जो सर्वोत्तम नाशरहित स्‍वरूप है, वह पूर्णब्रह्म है और जो प्राणीमात्र में कर्त्ता-भोक्‍ता रूप से देह धारण किये हुए हैं वह अध्‍यात्‍म है। प्राणीमात्र की उत्‍पत्ति जिस क्रिया से होती है, उसका नाम कर्म है। अत: यह भी कह सकते हैं कि जिस क्रिया से उत्‍पत्ति मात्र होती है, वह कर्म है। मेरा नाशवान देहस्‍वरूप अधिभूत है और यज्ञ द्वारा शुद्ध हुआ अध्‍यात्‍म स्‍वरूप अधियज्ञ है। यों देहरूप में, मूर्च्छित जीव रूप में और पूर्ण ब्रह्मरूप में सर्वत्र मैं ही हूँ और ऐसा जो मैं हूं उसका मृत्‍यु के समय में जो ध्‍यान धरता है, अपने को बिसार देता है, किसी प्रकार की चिंता नहीं करता, इच्‍छा नहीं करता, वह निस्‍संदेह मेरे स्‍वरूप को प्राप्‍त करता है। मनुष्‍य जिस स्‍वरूप का नित्‍य ध्‍यान धरता है, अंतकाल में भी उनका ध्‍यान रहे तो उस स्‍वरूप को वह पाता है और इसीलिए तू नित्‍य मेरा ही स्‍मरण रख। मुझमें ही मन-बुद्धि पिरो रख। तब मुझे ही पावेगा। तू इस प्रकार चित्त के स्थिर न हो पाने की बात कहेगा। मेरा कहना है कि नित्‍य के अभ्‍यास से, नित्‍य के प्रयत्‍न से, इस प्रकार मनुष्‍य एकध्‍यान अवश्‍य हो जाता है, क्‍योंकि मैं तुझसे कह चुका हूँ कि मूल की दृष्टि से विचारने पर तो देह- धारी भी मेरा ही स्‍वरूप है। इसलिए मनुष्‍य को पहले से कहा तैयारी करनी चाहिए कि मृत्‍यु के समय मन चलायमान न हो, भक्ति में लीन रहे, प्राण को स्थिर रखे और सर्वज्ञ पुरातन, नियन्‍ता, सूक्ष्‍म होते हुए भी सबके पालन की शक्ति रखने वाले, चिंतन द्वारा तत्‍काल न पहचाने जा सकने वाले, सूर्य के समान अंधकार-अज्ञान मिटाने वाले, परमात्‍मा का ही स्‍मरण करे।"

ʻʻइस परम पद को वेद अक्षर ब्रह्म नाम से पहचानते हैं, राग द्वेषादि-त्‍यागी मुनि उसे पाते हैं और उस पद की प्राप्ति के सब इच्‍छुक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं तात्‍पर्य, काया, वाचा और मन को अंकुश में रखते हैं, विषय मात्र का तीनों प्रकार से त्‍याग करते हैं। इंद्रियों की समेट कर का उच्‍चारण करते, मेरा ही चिंतन करते-करते देह छोड़ने वाले स्‍त्री-पुरुष परम पद पाते हैं। ऐसों का चित्त कहीं अन्‍यत्र नहीं भटकता और यों मुझे पाकर यह दु:ख-निवासी रूपी जन्‍म फिर नहीं लेना पड़ता। इस जन्‍म-मरण के चक्‍कर से छूटने का उपाय मेरी प्राप्ति ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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