गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 34

गीता माता -महात्मा गांधी

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गीता-बोध
तेरहवां अध्‍याय

सोमप्रभात
26-1-32

श्रीभगवान बोले - इस शरीर का दूसरा नाम क्षेत्र है और उसके जानने वाले को नेत्रज्ञ कहते हैं। सब शरीर में मौजूद जो मैं[1] हूं, उसे क्षेत्रज्ञ समझ, और वास्‍तविक ज्ञान वह है कि जिससे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद जाना जाये। पंच महाभूत - पृथ्‍वी, पानी, आकाश, तेज और वायु, अहंता, बुद्धि, प्रकृति, दस इंद्रियां, पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां - एक मन, पांच विषय, इच्‍छा, द्वेष, सुख, दु:ख, संघात अर्थात शरीर जिससे बना हुआ है, उसकी एक होकर रहने की शक्ति, शरीर के परमाणुओं में एक-दूसरे से चिपटे रहने का गुण, यह सब मिलकर विकारों- वाला क्षेत्र बना।

इस शरीर को और उसके विकारों को जानना चाहिए, क्‍योंकि उनको त्‍यागना है। इस त्‍याग के लिए ज्ञान चाहिए। यह ज्ञान आर्थात मानीपने का त्‍याग, दंभ का त्‍याग, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, शुद्धता स्थिरता, विषयों पर अंकुश, विषयों में वैराग्‍य, अहंकार का त्‍याग, जन्‍म, मृत्‍यु, बुढ़ापा और उसके सिलसिले में रहे हुए रोगसमूह, दु:ख-समूह और नित्‍य होने वाले दोषों का पूरा भान, स्‍त्री-पुत्र, घर-द्वार, संगे-सम्‍बन्‍धी इत्‍यादि में से मन को खींच लेना और ममता छोड़ना, अपने मनोनुकूल कुछ हो या मन के प्रतिकूल - उसमें समता रखना, ईश्वर की अनन्‍य भक्ति, एकान्‍तसेवन, लोगों में मिलकर भोग भोगने की ओर अरुचि, आत्मा के विषय में ज्ञान की प्‍यास और अंत में आत्‍मदर्शन।

इससे विपरीत का नाम अज्ञान है। इस ज्ञान के साधन से जो जानने की चीज है - ज्ञेय है और जिसे जानने से मोक्ष मिलती है, उसके विषय में थोड़ा सुन। यह ज्ञेय अनादि परब्रह्म है। अनादि है - अर्थात् उसे जन्‍म नहीं है - जब कुछ नहीं था तब भी वह परब्रह्म तो था। वह सत नहीं है और असत भी नहीं है। उससे भी परे है। अन्‍य दृष्टि से उसे सत कह सकते हैं, क्‍योंकि वह नित्‍य है। तथापि उसकी नित्‍यता को भी मनुष्‍य नहीं पहचान सकता, इससे उसे सत से भी परे कहा, उससे कुछ भी सुना नहीं। उसे हजारों हाथ-पांवों वाला कह सकते हैं और इस प्रकार उसे हाथ-पैर आदि हैं, यह जान पड़ते हुए भी वह इंद्रिय- रहित है, उसे इंद्रियों की आवश्‍यकता नहीं हे, उनसे वह अलिप्‍त है। इंद्रियां तो आज हैं और कल नहीं हैं। पर ब्रह्म तो नित्‍य है ही ओर यद्यपि वह सब में व्‍याप्‍त है और सबको धारण किये हुए है, इससे गुणों का भोक्‍ता कहा जा सकता है, तथापि जो उसे नहीं पहचानते उनके हिसाब से तो वह बाहर ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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