गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पांचवां अध्याय
कर्मसंन्यासयोग
अर्जुन उवाच अर्जुन बोले- हे कृष्ण! कर्मों के त्याग की और फिर कर्मों के योग की आप स्तुति करते हैं। मुझे ठीक निश्चयपूर्वक कहिए कि इन दोनों में श्रेयस्कर क्या है? श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान बोले— कर्मों का त्याग और योग दोनों मोक्ष देने वाले हैं। उनमें भी कर्म संन्यास से कर्मयोग बढ़कर है। ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। जो मनुष्य द्वेष नहीं करता और इच्छा नहीं करता, उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए। जो सुख-दु:खादि द्वंद्व से मुक्त है, वह सहज में बन्धनों से छूट जाता है। टिप्पणी- तात्पर्य, कर्म का त्याग संन्यास का खास लक्षण नहीं है, बल्कि द्वंद्वातीत होना ही है- एक मनुष्य कर्म करता हुआ भी संन्यासी हो सकता है। दूसरा कर्म न करते हुए भी मिथ्याचारी हो सकता है।[1] सांख्ययोगौ पृथग्वाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:। सांख्य और योग और कर्म ये दो भिन्न हैं, ऐसा अज्ञानी कहते हैं, पंडित नहीं कहते। एक में अच्छी तरह स्थिर रहने वाला भी दोनों का फल पाता है। टिप्पणी- ज्ञानयोगी लोक-संग्रहरूपी कर्मयोग का विशेष फल संकल्प मात्र से प्राप्त करता है। कर्मयोगी अपनी अनासक्ति के कारण बाह्य कर्म करते हुए भी ज्ञानयोगी की शांति का अधिकारी अनायास बनता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखो अध्याय 3, श्लोक 6
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