गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
पंद्रहवां अध्याय
पुरुषोत्तम योग
श्रीभगवानुवाच- श्रीभवगान बोले- जिसका मूल ऊंचे है, जिसकी शाखा नीचे है और वेद जिसके पत्ते हैं, ऐसे अविनाशी अश्वत्थ वृक्ष का बुद्धिमान लोगों ने वर्णन किया है, इसे जो जानते हैं वे वेद के जानने वाले ज्ञानी हैं। टिप्पणी- ‘श्व:’ का अर्थ है आने वाला कल। इसलिए अश्वत्थ का मतलब है आगामी कल तक न टिकने वाला क्षणिक संसार। संसार का प्रतिक्षण रुपांतर हुआ करता है इससे वह अश्वत्थ है; परंतु ऐसी स्थिति में वह सदा रहने वाला होने के कारण तथा उसका मूल ऊर्ध्व अर्थात ईश्वर है, इस कारण वह अविनाशी है उसमें यदि वेद अर्थात धर्म के शुद्ध ज्ञान रूपी पत्ते न हों तो वह शोभा नहीं दे सकता। इस प्रकार संसार या यथार्थ ज्ञान जिसे है और जो धर्म को जानने वाला है वह ज्ञानी है। अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला: । गुणों के स्पर्श द्वारा बढ़ी हुई और विषय रूपी कोंपलों वाली उस अश्वत्थ की डालियां नीचे- ऊपर फैली हुई हैं; कर्मों का बंधन करने वाली उसकी जड़ें मनुष्य - लोक में नीचे फैली हुई हैं। टिप्पणी- यह संसार-वृक्ष अज्ञानी की दृष्टि वाला वर्णन है। उसके ऊंचे ईश्वर में रहने वाले मूल को वह नहीं देखता, बल्कि, विषयों की रमणीयता पर मुग्ध रहकर, तीनों गुणों द्वारा इस वृक्ष का पोषण करता है और मनुष्य लोक में कर्म पाश में बंधा हुआ रहता है। न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । उसका यथार्थ स्वरूप देखने में नहीं आता। उसका अंत नहीं है, आदि नहीं है, नींव नहीं है। खूब गहराई तक गई हुई जड़ों वाले इस अश्वत्थ वृक्ष को असंगरूपी बलवान शस्त्र के काट कर मनुष्य यह प्रार्थना करे- ‘जिसने सनातन प्रवृत्ति-माया–को फैलाया है उस आदि पुरुष की मैं शरण जाता हूँ।’ और उस पद को खोज जिसे पाने वाले को पुन: जन्म-मरण के फेर में पड़ना नहीं पड़ता। टिप्पणी- असंग से मतलब है असहयोग, वैराग्य। जब तक मनुष्य विषयों से असहयोग न करे, उनके प्रलोभनों से दूर न रहे तब तक वह उनमें फंसता ही रहेगा। इस श्लोक का आशय यह है कि विषयों के साथ खेल-खेलना और उनसे अछूता रहना, यह अनहोनी बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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