गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 189

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
पंद्रहवां अध्‍याय
पुरुषोत्तम योग


भगवान ने इस अध्‍याय में क्षर और अक्षर से परे अपना उत्तम स्‍वरूप समझाया है-

श्रीभगवानुवाच-
ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥1॥

श्रीभवगान बोले- जिसका मूल ऊंचे है, जिसकी शाखा नीचे है और वेद जिसके पत्ते हैं, ऐसे अविनाशी अश्‍वत्‍थ वृक्ष का बुद्धिमान लोगों ने वर्णन किया है, इसे जो जानते हैं वे वेद के जानने वाले ज्ञानी हैं।

टिप्‍पणी- ‘श्‍व:’ का अर्थ है आने वाला कल। इसलिए अश्‍वत्‍थ का मतलब है आगामी कल तक न टिकने वाला क्षणिक संसार। संसार का प्रतिक्षण रुपांतर हुआ करता है इससे वह अश्‍वत्‍थ है; परंतु ऐसी स्थिति में वह सदा रहने वाला होने के कारण तथा उसका मूल ऊर्ध्‍व अर्थात ईश्वर है, इस कारण वह अविनाशी है उसमें यदि वेद अर्थात धर्म के शुद्ध ज्ञान रूपी पत्ते न हों तो वह शोभा नहीं दे सकता। इस प्रकार संसार या यथार्थ ज्ञान जिसे है और जो धर्म को जानने वाला है वह ज्ञानी है।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला: ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥2॥

गुणों के स्‍पर्श द्वारा बढ़ी हुई और विषय रूपी कोंपलों वाली उस अश्‍वत्‍थ की डालियां नीचे- ऊपर फैली हुई हैं; कर्मों का बंधन करने वाली उसकी जड़ें मनुष्‍य - लोक में नीचे फैली हुई हैं।

टिप्‍पणी- यह संसार-वृक्ष अज्ञानी की दृष्टि वाला वर्णन है। उसके ऊंचे ईश्वर में रहने वाले मूल को वह नहीं देखता, बल्कि, विषयों की रमणीयता पर मुग्‍ध रहकर, तीनों गुणों द्वारा इस वृक्ष का पोषण करता है और मनुष्‍य लोक में कर्म पाश में बंधा हुआ रहता है।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेन सुविरूढमूलमसग्ङशस्त्रेण दृढेन छित्वा ॥3॥
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी ॥4॥

उसका यथार्थ स्‍वरूप देखने में नहीं आता। उसका अंत नहीं है, आदि नहीं है, नींव नहीं है। खूब गहराई तक गई हुई जड़ों वाले इस अश्‍वत्‍थ वृक्ष को असंगरूपी बलवान शस्‍त्र के काट कर मनुष्‍य यह प्रार्थना करे- ‘जिसने सनातन प्रवृत्ति-माया–को फैलाया है उस आदि पुरुष की मैं शरण जाता हूँ।’ और उस पद को खोज जिसे पाने वाले को पुन: जन्‍म-मरण के फेर में पड़ना नहीं पड़ता।

टिप्‍पणी- असंग से मतलब है असहयोग, वैराग्‍य। जब तक मनुष्‍य विषयों से असहयोग न करे, उनके प्रलोभनों से दूर न रहे तब तक वह उनमें फंसता ही रहेगा। इस श्‍लोक का आशय यह है कि विषयों के साथ खेल-खेलना और उनसे अछूता रहना, यह अनहोनी बात है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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