गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
चौथा अध्याय
सोमप्रभात भगवान ने अर्जुन से कहा कि मैंने जो निष्काम कर्मयोग तुझे बतलाया है वह बहुत प्राचीन काल से चला आता है, यह नया नहीं है। तू प्रिय भक्त है इसलिए, और इस समय धर्म-संकट में है इसलिए, उसमें से मुक्त करने के लिए, मैंने तेरे सामने इसे रखा है। जब-जब धर्म की निंदा होती है और अधर्म फैलता है तब-तब मैं अवतार लेता हूँ और भक्तों की रक्षा करता हूं, पापी का संहार करता हूँ। मेरी इस माया को जो जानने वाला है वह विश्वास रखता है कि अधर्म का लोप अवश्य होगा, साधु पुरुष का रक्षक ईश्वर है। ऐसे मनुष्य धर्म का त्याग नहीं करते और अंत में मुझे पाते हैं, क्योंकि वे मेरा ध्यान धरने वाले, मेरा आश्रय लेने वाले होने के कारण काम-क्रोधादि से मुक्त रहते हैं और तप तथा ज्ञान से शुद्ध हुए रहते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा फल पाता है। मेरे नियमों से बाहर कोई रह नहीं सकता। गुण-कर्म-भेद से मैंने चार वर्ण पैदा किये हैं, फिर भी मुझे उनका कर्ता मत समझ, क्योंकि मुझे इस कर्म में से किसी फल की आकांक्षा नहीं है, न इसका पाप-पुण्य मुझे होता है। यह ईश्वरी माया समझने योग्य है। जगत में जितनी प्रवृत्तियां हैं, सब ईश्वरी नियमों के अधीन होती हैं, फिर भी ईश्वर उनसे अलिप्त रहता है, इसलिए वह उनका कर्ता है और अकर्ता भी। यों अलिप्त रहकर, अछूते रहकर, फलेच्छा से रहित होकर चलें तो अवश्य मोक्ष पा जाये। ऐसा मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और ऐसे मनुष्य को न करने योग्य कर्म का भी तुरंत पता चल जाता है। कामना से संबंधित कर्म, जो कामना के बिना हो ही नहीं सकते, वे सब न करने योग्य कर्म कहलाते हैं- उदाहरण के लिए, चोरी, व्यभिचार इत्यादि। ऐसे कर्म कोई अलिप्त रहकर नहीं कर सकता। इसलिए जो कामना और संकल्प छोड़कर कर्त्तव्य-कर्म करता है, उसके बारे में कहा जाता है कि उसने अपने ज्ञान रूपी अग्नि द्वारा अपने कर्मों को जला डाला है। यों कर्मफल का संग छोड़ने वाला मनुष्य सदा संतुष्ट रहता है, सदा स्वतन्त्र होता है। उसका मन ठिकाने होता है, वह किसी संग्रह में नहीं पड़ता और जैसे आरोग्यवान पुरुष की शारीरिक क्रियाएं अपने-आप चलती रहती हैं, उसी प्रकार ऐसे मनुष्य की प्रवृत्तियां अपने-आप चला करती हैं। उनके अपने चलाने का उसे अभिमान नहीं होता, भान तक नहीं होता। वह स्वयं निमित्त मात्र रहता है - सफलता मिली तो भी ʻवाह-वाहʼ, न मिली तो भी। सफलता से वह फूल नहीं उठता, विफलता से घबराता नहीं। उसके सब कर्म यज्ञ रूप, सेवा के लिए होते हैं। वह सारी क्रियाओं में ईश्वर को ही देखता है और अंत में उसी को पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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