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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
दुर्योधन और अश्वत्थामा की भेंट
श्रीकृष्ण ने उससे झिड़क कर कहा- “अरे नीच, तू अपने मन के गुलगुले पकाना छोड़ दे। तेरी इच्छा कभी पूरी न होगी। युधिष्ठिर के बाद पाण्डवों की गद्दी पर स्वर्गीय अभिमन्यु की सन्तान बैठेगी। यह सुनकर अश्वत्थामा निस्तेज हो गया। श्रीकृष्ण ने फिर कहा- “अश्वत्थामा, तुम बार-बार यह कहते हो कि भीम और युधिष्ठिर भाई ने मेरे कहने से छल करके तुम्हारे पिता की हत्या करवाई थी। तुम यह क्यों नहीं देखते कि द्रोणाचार्य जी ने स्वयं अपने ही साथ छल किया था। उन्होंने तुम्हारे मोह में पड़कर धर्म और अधर्म का विवेक खो दिया। तुम्हें राजकुमारों की तरह शान से रखने के लिए वे मन से न चाहते हुए भी दुर्योधन के पास बने रहे। क्या उन्होंने अपने साथ यह कम छल किया था? पुत्र का मोह सभी को होता है। परन्तु तुम्हारे पिता ने इस मोह को इतना बढा़या कि तुम्हारे लिए ही जीने और मरने की प्रतिज्ञा करके वे अपनी कर्तव्यनिष्ठा से भी गिर गये। भला यह कोई बात हुई कि एक पक्ष का महासेनापति होने पर भी तुम्हारे मरने की झूठी खबर सुनकर वे सारे युद्ध की चिन्ता छोड़कर तथा हाथ-पांव ढीले करके बैठ गये। अर्जुन का बेटा अभिमन्यु मरा, भीम का बेटा घटोत्कच मरा, दुर्योधन का बेटा भी उसके सामने ही मरा और कर्ण ने भी मरने से पहले अपने एक बेटे की मौत का समाचार पाया पर इनमें से किसी ने भी अपने कर्तव्य पालन से मुंह न मोड़ा। परन्तु तुम्हारे पिता तुम्हारे गलत मोह में पड़कर ऐसा न कर सके। शठ को शठता से मारना पाप नहीं होता। अश्वत्थामा, कृष्ण कभी किसी को अनुचित काम की सलाह नहीं दिया करता। जाओ, और अपने किए का दण्ड भोगो। अब तुम इस संसार में अकेले हो। निस्तेज हो और तपोभ्रष्ट भी हो चुके हो। अब जीवित रहना और पुराने पापों को याद कर-करके दुःख भोगना ही तुम्हारे लिए सबसे बड़ा दण्ड है। महाभारत के इस कठिन युद्ध में तुमसे बढ़कर अभागा और कोई भी नहीं था।" अश्वत्थामा अपमानित होकर सिर झुकाये हुए चला गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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