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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा
उधर पाण्डवों की छावनी में भी आचार्य के मारे जाने से गहरा दुःख प्रकट किया जा रहा था। अर्जुन खासतौर से बेहद दुखी था। उसने दल द्वारा द्रोणाचार्य के मारे जाने की बड़ी निन्दा की। वह अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर से भी नाराज हुआ, कहा- “हे भाई, जैसे वानर राजा बलि को धोखे से मारकर रघुकुल तिलक रामचन्द्र जी के निर्मल चरित्र पर अमिट धब्बा लगा था, वैसे ही सत्यपरायण गुरु द्रोणाचार्य के साथ झूठ बोलकर आपने भी अपने चरित्र को कलंकित कर दिया है। अगर आपने वह न कहा होता कि अश्वत्थामा मारा गया, तो वे किसी की बात पर कभी विश्वास नहीं करते। अधर्मपूर्वक गुरु से शस्त्र त्याग करवा कर उनकी हत्या करने से बढ़कर नीच काम मेरी दृष्टि में और कोई नहीं है।” सभा में बैठे हुए सभी लोग सिर झुकाये हुए अर्जुन की इन बातों को सुनते रहे, किन्तु भीमसेन से न रहा गया। अर्जुन को फटकारते हुए उन्होंने कहा- “व्यर्थ के उपदेश मत बघारो अर्जुन। हम लोग वनवासी साधु या सन्त नही हैं, हम क्षत्रिय हैं। यु़द्ध में कभी-कभी नीतिवश झूठा आचरण भी किया जाता है। हमने आज कोई नई बात नहीं की है। जिन कौरवों ने हमारे साथ एक नहीं अनेक बार छल किया, लेकिन गुरु जी तब बराबर चुप रहे। उन्हें हम तुम्हारे कहने भर से भला सत्यपरायण क्यों मान लें। मैंने माना कि द्रोणाचार्य जी हमारे गुरु थे, ब्राह्मण थे, परन्तु जरा यह तो बतलाओं कि द्रोणाचार्य ऐसा कौन सा कार्य करते थे जिससे कि उन्हें ब्राह्मण माना जाय। वे अपना धर्म छोड़कर क्षत्रिय धर्म निभा रहे थे।” कौरवों को विजय दिलाने के लिए उन्होंने भयंकर युद्धरत होकर धर्म-अधर्म की तनिक परवाह किए बिना हमारे पक्ष के ऐसे लोगों को भी मारा जा लड़वैये न होकर सैनिकों के सहायक मात्र थे। इस प्रकार जब उन्होंने ही अपना धर्म नहीं निभाया तो हमको ही किस प्रकार से दोषी ठहराया जा सकता है।” भीमसेन की बातों को सुनकर जब द्रौपदी रानी के भाई धृष्टद्युम्न भी इसी तरह की बातें कहने लगे, तब आंखों में आंसू भर कर अर्जुन ने कहा- “धृष्टद्युम्न, तुम्हें धिक्कार है, एक बार नहीं हज़ार बार धिक्कार है। तेरे इस कायरता भरे काम से पाण्डव कुल की चौदह पीढ़ियां नरक में चली गईं।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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