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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
न केवल पुरुष से सृष्टि हो सकती है, न केवल प्रकृति से। पुरुष निर्विकार, कूटस्थ है, प्रकृति ज्ञानविहीन जड़ है। अतः सृष्टि के लिये दृक्-दृश्य, प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध अपेक्षित होता है। ‘गीता’ में भी प्रकृति को परमात्मा की योनि कहा गया है-
भगवान कहते हैं- महद्ब्रह्म प्रकृति- मेरी योनि है, उसी में मैं गर्भाधान करता हूँ, तभी उससे महादादिक्रमेण समस्त प्रजा उत्पनन होती है। प्रकृतिरूप योनि में प्रतिष्ठिर होकर ही पुरुषरूप लिंग का उत्पादन करता है। अत एव बिना योनि-लिंग-सम्बन्ध के कहीं भी किसी की सृष्टि ही नहीं होती। हाँ, यह बात अवश्य समझ लेनी चाहिये कि लोक प्रसिद्ध मांस चर्ममय ही लिंग और योनि नहीं है, किन्तु वह व्यापक है। उत्पति का उपादानकारण पुरुषतत्त्व का चिह्न ही लिंग कहलाता है। दृश्य अण्डश्य ब्रह्म भी अदृश्य पुरुष ब्रह्म का चिह्न है और वही संसार का उपादान भी है। अतः वह लिंगपदवाच्य है। लिंग और योनि पुरुष-स्त्री के गुह्यांगपरक होने से ही इन्हें अश्लील समझना ठीक नहीं है। गेहूँ, यव आदि में भी जिस भाग में अंकुर निकलता है उसे योनि जाना जाता है, दाने निकलने से पहले जो छत्र होता है वह लिंग है। ब्रह्मा या देवताओं के संकल्प से उत्पन्न सृष्टि का भी लिंग-योनि से सम्बन्ध है अर्थात शिव शक्ति ही यहाँ लिंग-योनि शब्द से विवक्षित है। उत्पत्ति का आधारक्षेत्र भग है, बीज लिंग है। वृक्ष, अंकुरादि सभी प्रपंच की उत्पत्ति का क्षेत्र भग है, बीज पुरुष, लिंग है। जैसे दृक्तत्त्व व्यापक है, वैसे ही दृश्य प्रकृतितत्त्व भी। तभी तो कभी लोकप्रसिद्ध योनि-लिंग के बिना भी मानसी संकल्पजा सृष्टि होती थी। कहीं दर्शन से, कहीं स्पर्श से, कहीं फलादि से भी सन्तान उत्पन्न हो जाती थी। कहीं भी, कैसी भी, सृष्टि क्यों न हो, परन्तु वहाँ सृष्टि के उत्पादनानुकूल शिव-शिक्ति का सम्बन्ध अवश्य मानना पड़ता है। वृक्ष, लता, दूर्वा, तृणादि सभी तत्त्वों की उत्पत्ति में तदुपयुक्त शिव-शिक्त का सम्बन्ध अनिवार्य है। योगसिद्ध महर्षियों का प्रकृति पर अधिकार होता था। अतः ये संकल्प, स्पर्शन, अवलोकन आदि से ही सृष्टि के उपयुक्त लिंग-योनि-सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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