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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
प्रसिद्ध लिंग और योनि ही असली लिंग योनि नहीं है। किन्तु यह तो उनकी अभिव्यक्ति का स्थान, केवल गोलक है। सर्वसाधारण लोग जिसे नेत्र समझते हैं वह नेत्र नहीं है, किन्तु वह तो अतीन्द्रिय नेत्र इन्द्रिय की अभिव्यक्ति का स्थान गोलक है, इन्द्रिय उससे पृथक सूक्ष्म वस्तु है। प्रसिद्ध नासिका या कान ही घ्राण और श्रोत्र नहीं, किन्तु यह सब तो गोलक है। घ्राण, श्रोत आदि इन्द्रियाँ तो अतिसूक्ष्म हैं, वे नेत्रादि के विषय नहीं है। फिर भी विशेषरूप से उनका इन गोलकों में प्राकट्य होता है, अत एव कभी जब इन गोलकों के ज्यों-के-त्यों बने रहने पर भी इन्द्रियशक्ति क्षीण हो जाती है, तब दर्शन, श्रवण, आघ्राण आदि नहीं होते। योगियों को घ्राण, श्रोत्र, नेत्र-सम्बन्ध बिना भी दूरदर्शन श्रवणादि होते हैं। उसी तरह लौकिक प्रसिद्ध लिंग-योनि आदि केवल गोलक हैं, उनमें व्यक्त होने वाला योनि-लिंग तो अतीन्द्रिय ही है। वैसे ही प्रजनन इन्द्रिय, वीर्य, रज आदि भी उसके मुख्य रूप नहीं, किन्तु उनसे भी सूक्ष्म, उनमें विशेषरूप व्यक्त दृक-दृश्य ही शिव और शक्ति है। यद्वा जैसे अग्नितादात्म्यापन्न लौह-पिण्ड में दाहकत्व, प्रकाशकत्व हो सकता है, वैसे ही पुरुष-प्रतिबिम्बोपेत ही अचेतन प्रकृति चेतित होकर विश्व का निर्माण करती है। जैसे पुरुष के सर्वांगसार वीर्य को पाकर ही योनि सन्तान रचती है, वैसे ही पुरुष-प्रतिबिम्ब भी पुरुष समानाकार पुरुष की प्रतिकृति ही होता है, उसी से अचेतन प्रकृति में भी चेतनता का संचार होता ही है। इधर मूर्तिपूजा का भी भाव यही होता है कि दृष्य से अदृशष्य की पूजा हो। शलग्राम में विष्णु की भावना होती है। केवल काष्ठ, पाषाण, धातु की पूजा नहीं होती, किन्तु मन्त्र और विधानों की महिमा से आहूत, संनिहित व्यापक दैवततत्त्व ही मूर्ति में आराध्य होता है। व्यष्टि के द्वारा ही प्रणियों के मन में समष्टिभाव का आरोहण होता है। अत एव, समस्त व्यष्टि लिंगो एवं अन्यत्र भी व्यापक शिवतत्त्व की समष्टि मूर्ति महादेव-लिंग है। जैसे व्यक्ति नेत्रों का अधिष्ठाता समष्टिदेव सूर्य है, वैसे ही व्यष्टि प्रजनन शक्तियों में व्याप्त शिवतत्त्व का समष्टिस्वरूप शिवलिंग है। जैसे व्यष्टि नेत्र उपासना न होकर समष्टि नेत्र सूर्य की ही आराधना होती है और प्रतिमा भी उन्हीं की बनती है, वैसे ही समष्टि शिवमूर्ति की ही उपासना और प्रतिमा होती है। जैसे जाग्रत, स्वप्न की उत्पत्ति और लय सौषुप्ततम से ही होते हैं, वैसे ही तम से ही सबका उद्भव और उसी में सबका लय होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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