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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
यहाँ शुद्ध परमतत्त्व में ही शिवशक्तिभाव, अर्द्धनारीश्वरभाव और शद्ध आकर्षण प्रेम या काम है। सत्रूप गौरी एवं चित्रूप शिव दोनों ही जब अर्द्धनारीश्वर के रूप में मिथुनीभूत (सम्मिलित) होते हैं, तभी पूर्ण सच्चिदानन्द का भाव व्यक्त होता है, परन्तु यह भेद केवल औपचारिक ही है, वास्तव में तो वे दोनों एक ही हैं। कुछ महानुभावों का कहना है कि पूर्ण सौन्दर्य अपने में ही अपने प्रतिबिम्ब को अपने आप देख सकता है, भगवान अपने स्वरूप को देखकर स्वयं विस्मित हो जाते हैं-‘‘विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धे:।’’
प्रकृति पार, सौन्दर्य-माधुर्यसार, आनन्दरससार परमात्मा में भी शिव-पार्वती भाव बनता है। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोत्पादिनी अनिर्वचनीय शक्ति विशिष्ट ब्रह्म में भी शिव-पार्वती भाव है। उस परमात्मा में ही लिंग योनिभाव की कल्पना है। निराकार, निर्विकार, व्यापक दृक् या पुरुषतत्त्व का प्रतीक ही लिंग है और अनन्त ब्रह्माण्डोत्पादिनी महाशक्ति प्रकृति ही योनि, अर्धा या जलहरी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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