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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
सुन्दर, मनोहर देवता और तद्विषयक प्रेम आदि उपादेय है, सुन्दरी वेश्यादि की आनन्द्ररूपता और तद्विषयक प्रेम हेय है। जैसे अतिपवित्र दुग्ध भी अपवित्र पात्र के संसर्ग से अपवित्र समझा जाता है, वैसे ही आनन्द और प्रेम भी अपवित्र उपाधियों, के संसर्ग से दूषित हो जाता है। शास्त्रनिषिद्ध विषयों में आनन्द और प्रेम दोष है, हेय है। शास्त्रविहित विषयों में आनन्द और प्रेम पुण्य है, उपादेय है। परन्तु, निर्विशेष, सर्वोपाधियुक्त प्रेम, आनन्द तो स्पष्ट आत्मा या ब्रह्म ही है। इतने पर भी आनन्द और प्रेम सभी है। आत्मा के ही अंश अपवित्र विषय के दूषण से ही कामिनी आदि विषयक प्रेम को मन या राग आदि कहा जाता है, देवता विषयक प्रेम को भक्ति अदि कहा जाता है। सजातीय में ही सजातीय का आकर्षण होता है। बस यह आकर्षण ही प्रेम या काम है कान्ताकान्त दोनों ही में रहने वाली तत्तदवच्छिन्न रस या आनन्द में ही जो परस्पर आकषर्ण है, वही काम है। समष्टि ब्रह्म का प्रकृति की ओर झुकाव आधिदैविक काम है। परन्तु जहाँ शुद्ध सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का स्वरूप में ही आकर्षण होता है, किंवा आत्मा का अपने ही अत्यन्त अभिन्न स्वरूप में ही जो आकर्षण या निरतिशय, निरुपाधिक प्रेम, है वह तो आत्मस्वरूप ही है। यही राधा-कृष्ण, गौरी-शंकर, अर्द्धनारीश्वर का परस्पर प्रेम, परस्पर आकर्षण है और यह शुद्ध प्रेम ही शुद्ध काम है। यह कामेश्वर या कृष्ण का स्वरूप ही है। अनन्त ब्रह्माण्ड में विस्तीर्ण कामबिन्दु मन्मथ है। परन्तु, सौन्दर्यमाधुर्यसार-सर्वस्व, निखिल रसामृतिमूर्त्ति कृष्णचन्द्र को जो अपनी ही स्वरूपभूता माधुर्याधिष्ठात्री राधा में आकर्षण है, वह तो साक्षान्मन्मथमन्मथ ही है। उनका सौन्दर्य ऐसा अद्भुत है कि उन्हें ही विस्मित कर देता है। काम उनकी पदनख-मणि-चन्द्रिका की रश्मिच्छटा को देखकर मुग्ध हो गया। उसका स्त्रीत्व-पुंस्त्वभाव ही मिट गया, उसने अपने मन में यह ठान लिया कि अनन्त जन्मों तक भी तपस्या करके ब्रजांगनाभाव प्राप्त कर श्रीकृष्ण के पद-नख-मणि-चन्द्रिका का सेवन करूँगा। परन्तु, यहाँ तो कृष्ण ने ही अपने स्वरूप पर मुग्ध होकर उस रस समास्वादन के लिये ब्रजांगनाभावप्रप्त्यर्थ तपस्या का विचार कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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