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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
कान्त को कान्ता की कामना, उसको सुखाभिव्यंजक अत एव सुखमय समझकर ही होती है। कामना या तृष्णा से व्यथित हृदय में स्वरूपभूत आत्मानन्द का प्राकट्य नहीं होता। परन्तु, अभिलषित कान्ता की प्राप्ति होने पर क्षण भर के लिये वह तृष्णा निवृत्त हो जाती है, बस तभी अन्तर्मुख किंचित शान्त मन पर आत्मानन्द का प्राकट्य होता है। परन्तु, आत्मा में ही आनन्द है अथवा आनन्ददाभिव्यंजक तृष्णा की निवृति में, इसको तो विवेकी ही जानता है, अविवेकी तो आत्मा के स्वरूपभूत आनन्द को नहीं समझता। तृष्णा निवर्तक सुन्दरी कान्ता में ही आनन्द मानता है। अत एव, उसी की पुनः तृष्णा करता है और फिर कान्ताप्राप्ति की तृष्णारूपव्यथा की निवृत्ति से आनन्दित होकर फिर उसी को चाहता है। विवेकी समझता है कि यद्यपि कान्ताप्राप्ति अनन्तर आनन्द होता है, तथापि कान्ता साक्षात आनन्दरूप नहीं है किन्तु तृष्णानिवृत्ति, मनःशान्ति से आत्मा का ही आनन्द प्रकट होता है। आनन्द की प्राप्ति कान्ता दूरतः कारण है, सो भी आनन्दजनकत्व या आनन्दमयत्व की भ्रान्ति से। जैसे विष के प्रभाव से कटु निम्ब मे मिठास प्रतीत होती है, वैसे ही भ्रान्ति या मोह के प्रभाव से मांसमयी कान्ता में आनन्द का भान होता है। परन्तु, इसके अतिरिक्त शुद्ध आनन्द या आत्मा में जो प्रेम, आनन्द, कामना है, वह तो स्वाभाविक है, आत्मा का अंश ही है इसीलिये अद्वैत आत्मा की निरुपाधिक प्रेम का आस्पद कहा जाता है, परन्तु, वहाँ प्रेम और उसके आश्रय तथा विषय में भेद नहीं है। प्रेम, आनन्द, रस यह सभी आत्मा का स्वरूप है। रसरूप आनन्द से ही समस्त विश्व उत्पन्न होता है, अतः सब में उसका होना अनिवार्य है। इसीलिये जिस तरह सोपाधिक आनन्द और सोपाधिक प्रेम सर्वत्र है ही, उसी तरह कान्ता भी सोपाधिक आनन्दरूप कही जा सकती है। अत एव वह सोपाधिक प्रेम का विषय भी है। परन्तु निरुपाधिक प्रेम तो निरूपाधिक आत्मा में ही होना ठीक है। जैसे सत के ही सविशेष रूप में अनुकूलता, प्रतिकूलता, हेयता, उपादेयता होती है, निर्विशेष तो शुद्ध आत्मा ही है, वैसे ही सविशेष आनन्द और प्रेम में भी हेयता, उपादेयता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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