भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
परन्तु ‘वयं तु न विदामः’ हम तो नहीं जानतीं। हमें खण्डन-मण्डन से क्या मतलब? किसी के लिये भले ही परमात्मा हो पर हमारे तो श्यामसुन्दर हैं। भावुक कहते हैं- श्यामसुन्दर चाहे जैसे हों, चाहे प्रियतम प्राणधन हमसे द्वेष करते हों, या करुणा करते हों, पर हमारे ज्ञेय, ध्येय सब कुछ वही हैं। यह शर्त नहीं कि यदि वह प्रेम करें तभी हम उनसे प्रेम करें। यह तो व्यापार हुआ। सौन्दर्य की शर्त नहीं। वह व्यभिचारिणी भक्ति होगी। अटल भक्ति के माने यही है कि चाहे जो जैसा हो, अपनी वस्तुओं में निरतिशय प्रीति होती है। वही ठीक है। अतः वह खण्डन-मण्डन नहीं करती। वह तो कहती है कि ‘अन्ये अन्यज्जानन्तु नाम वयं तु न विदामः’ अर्थात मोक्षादि अन्य फलों को भले ही कोई जानते हों, परन्तु हम नहीं जानती। मान लिया कैवल्य हुआ, किन्तु वह सर्वेन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसलिये इन्द्रियवानों की लालसा यही है कि वह श्रीकृष्ण प्रभु सर्वेन्द्रिय ग्राह्य होकर प्राप्त हों। व्रजांगनाएँ कहती हैं- सखि! ‘वयं उपनिषद्रूपा।’ हम उपनिषद्रूपा हैं। यदि हम न जानेंगी तो दूसरा कौन जानेगा? फल तो श्रुति ही कहती है। फिर वेदविहीन नये फल को कोई जानते हों, तो जानें अर्थात् वेदप्रामाण्य वाले सारभूत फल निर्णय में उपनिषदों को ही प्रमाण मानते हैं, इसलिये यही फल है, दूसरा नहीं। इससे भी ऊँची बात यह है कि ब्रह्मदेव कहते हैं- ‘येषां तु भाग्यमहिमा’ इन व्रजांगनाओं के घोष निवासियों के अनन्त अद्भुत भाग्य की महिमा, हम उसे क्या गायें? हम तो अपने को कृतार्थ समझते हैं। हम कौन? ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठात्री देवता। जो व्रजांगनाजन आपके उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मक परमरसामृत-मूर्ति आपके आनन्द का साक्षात्कार करते हैं, उनकी महिमा तो अलौकिक है। हम इन्द्रियों की अधिष्ठात्री देवता अपने को अत्यन्त भाग्यवान समझते हैं। यह क्यों? इसलिये कि जब व्रजांगना अपने हृषीक चषकों से आपके श्रीअंगों के सौन्दर्यामृतसुधा का पान करती हैं, तब उनकी अधिष्ठात्री देवता होने से हमारा परम्परा से हृषीक चषकों से सम्बन्ध होता है, व्रजांगनाएँ अपने हृषीक चषक इन्द्रिय पानपात्रों से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द के सौन्दर्य माधुर्य सौगन्ध्यामृत का पान करती हैं। इसलिये मुख्य पात्र व्रजांगनाएँ हैं। पान का साधन इन्द्रिय पानपात्र है। जैसे नेत्र पानपात्र द्वारा आपके अमृतमय मुखचन्द्र के सौन्दर्यामृत का, घ्राण पानपात्र द्वारा सौगन्ध्यामृत का, श्रोत्र पानपात्र द्वारा वेणुगीत तथा अमृत वचनों का, रसाना पानपात्र द्वारा अमृतमय मुखचन्द्र की सुमधुर अधरसुधा का पान करना। यहाँ व्रजांगनाएँ पानकर्त्री हैं। इन्द्रिय रूप पानपात्र का सम्बन्ध रस से कहा है- ‘दर्वी पाकरसं यथा।’ यहाँ ब्रह्मा कहते हैं कि हम तो चषक भी नहीं हैं। इन्द्रिय भी करण हैं, जब उनको भी रस संभोग नहीं, तब उन इन्द्रियों के अधिष्ठाता हम देवताओं को वह रस संभोग कहाँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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