भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
महावाक्यजन्य तदाकाराकारित अन्तःकरण वृत्ति से स्पर्श किया, निर्वृत्तिक अन्तःकरण को भी स्पर्श न मिलेगा। फिर भी मान लो कि उसको मिला, पर इन्द्रियों को तो नहीं मिला। ठीक स्पर्श जीवात्मा को-सर्वोपाधिविनिर्मुक्त को मिलेगा। इसीलिये कहती है कि सखि! इन्द्रियवानों के इन्द्रिय होने की सफलता मनमोहन श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के अमृतमय मुखचन्द्र का इन नयनों से दर्शन, भुजाओं से परिरम्भण, प्राणों से उनके सौरभ का अवघ्राण, रसना से प्रियतम प्रधान के अमृतमय मुखचन्द्र की सुमधुर अधर सुखा पान करने को मिले। सर्वेन्द्रिय द्वारा संभोग योग्य सर्वों के परम प्रेमास्पद केवल बुद्धिग्राह्य हों, यह सह्य नहीं, किन्तु सर्व रोम-रोम भी उतावाले हो उठेंगे। भले ही कैवल्य की कोई स्थिति हो, जहाँ इन्द्रियों का रोना-धोना कुछ नहीं, परन्तु यदि वह स्थिति न हो, तो पूर्ण आस्वादन सभी को हो। क्योंकि कोई भी तत्त्व भगवद् विप्रयोग में है। उस सत्ता रूप से भी वियुक्त होना, असत्, स्फूर्तिविहीन, निस्फूर्ति, नीरस हो जाना कौन चाहेगा? कौन अपने को स्फूर्ति विहीन, नीरस, सत्ता विहीन होना चाहेगा? कहा है- ‘लोके नहि स विद्येत यो न रामनुव्रतः’ परमप्रेमी का लक्षण यही है कि जो प्रियतम के वियोग में रह न सके। ‘त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्’ एक लव, निमेंष में भी युग, कल्प, महाकल्प हों। “गोपीनां परमानन्द आसीत्गोविन्ददर्शने। क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाऽभवत्।।” व्रजांगनाओं को श्यामसुन्दर के दर्शन में महाकल्प भी क्षण के समान और वियोग में क्षण भी कल्प के समान बीतता था, यही तीव्र ताप है। इतना ही नहीं, बल्कि वियोग में रह ही न सके? यही उत्कट प्रेम है। जल से वियुक्त हीं तरंग रह सकेगा? यह शुद्ध प्रेम का लक्षण है कि प्रिय के वियोग में न रह सके। सत् से वियुक्त होने से असत् हो जाता है। श्रीकृष्ण परमानन्द रसस्वरूप के वियोग में नीरसता, निस्फूर्तिता हो जाती है। इस प्रकार जब सब ही श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द के अनन्य प्रेमी हैं, तब इन्द्रियों की ईर्ष्या होती है कि जो श्रीकृष्ण प्रभु प्रकट हैं, हाय! हम उनसे वंचित हैं। वह रोती हैं, ‘परांचि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः’ जो ध्यान में श्रीकृष्ण का अनुभव करते हैं, उनके नेत्रादि इन्द्रियाँ तड़फड़ाती रहती हैं, लालायित रहते हैं, अतः एक कहती है- ‘अक्षण्वतां फलमिदं’। दूसरी कहती है- ‘न परं विदामः परं किंचित्’ तो यह कुछ है ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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