भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
गौर शीशी श्याम हृदय की वस्तु है और श्याम शीशी गौर हृदय की वस्तु है। गौर में श्याम रस एवं श्याम में गौर रस भरा है। इस तरह परस्पर श्रीकृष्ण और वृषभानुनन्दिनी परस्पर हृदय की वस्तु हैं, दोनों में परम अन्तरंगता है। इसलिये कहा है कि ‘उभयोभयभावात्मा’ है। इस प्रकार वह परमतत्त्व भरपूर होकर वेणुरव द्वारा व्यक्त होता है। इसलिये उसका वर्णन करती हुई व्रजांगनाएँ श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकंद का परिरंभण करती हुई अनुराग की महिमा से परस्पर को परिरंभण करने लगीं। अथवा श्रीकृष्ण साक्षात्कार से रमण करने लगीं। गोप्य ऊचुः-
श्रीधराचार्य के मत में ‘गोप्य ऊचुः’ नहीं है, इसलिये ‘अनुवर्णनेनाहुः-अक्षण्वतामिति’ ऐसा उन्होंने लिखा है। ‘गोप्यः’ का अर्थ सनातन गोस्वामी ‘गोपयन्ति श्यामसुन्दरमिति गोप्यः’ करते हैं। व्रजांगनाएँ अपने श्यामसुन्दर को छिपाती हैं, इसलिये कि कोई उन्हें जान न जाय। व्रजांगनाएँ कहती हैं- हे सखियों! नेत्रवानों का, नेत्रधारियों का यही फल है। क्या? जल्दी नहीं कहते बना, प्रेमभार से विवश हो गयीं, अतः सहसा हृद्गत तत्त्व निर्देष्टुं अशक्य हो गया। वह निकलता ही नहीं, सखि! क्या? वह इस समय उनका हृदय ही जानता है। यहाँ ‘अक्षण्वतां’ से ‘सर्वेन्द्रियवतां’ यह अर्थ करना चाहिये। इन्द्रियवानों का और उनकी इन्द्रियों का यही फल है। ‘आवृत्तचक्षुः’ माने केवल आँखों को मींचकर ही दर्शन न होगा, अपितु चक्षूपलक्षित सर्वेन्द्रियों का निग्रह आवश्यक है। यहाँ भी व्रजांगनाएँ कहती हैं- हे सखि! सर्वेन्द्रियवानों का यही फल है, केवल चक्षुमानों का नहीं। क्या? तब कहते हैं कि वे जो परमरसामृतमूर्ति व्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द हैं, उनके मंगलमय अंगों के सौरस्यादि का आस्वादन करना। नहीं तो फिर निर्गुण, निराकार परब्रह्म तो इन्द्रियानुपभोग्य है। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।’ इन्द्रियाँ तो विफल हुई न? बुद्धिग्राह्य होने पर भी क्या हुआ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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