भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
उस वेणुरव को ही वर्णन करती हुई व्रजांगनाएँ परस्पर अभिरमण करती हैं। इस रव द्वारा सदानन्द रूप ही हृदय में व्यक्त होता है। कृष्ण पद का अर्थ ही सदानन्द है। कहा है- “कृषिर्भूवाचकः शब्दः णश्च निर्वृतिवाचकः।” कृष् धातु का अर्थ भू-सत्ता और ‘ण’ का अर्थ निवृति- आनन्द है। तथा च ‘सत्ता - आनन्द’ यह कृष्ण पद का अर्थ है। ‘तमालश्यामलत्विट् यशोदास्तन्यधन्य’ श्रीकृष्ण ही इसका अर्थ कोई कहते हैं, इसमें भी विरोध नहीं है। उसमें भी सत्ता और आनन्द दोनों का ऐक्य है। स्वयं प्रकाश सत्तारूप आनन्द, आनन्दरूप सत्ता दोनों एक ही बात है। सत्तारूप श्रीवृषभानुनन्दिनी एवं आनन्द रूप श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्णचन्द्र में परमानन्दकंद और श्रीवृषभानुनन्दिनी वैसे ही अभिन्न हैं जैसे सत्ता और आनन्द। यदि आनंद सत्ता न हो तो सत्ता बिना आनन्द असत् हो जाय। फिर जो असत् है, वह आनंद कैसे? वैसे ही आनंद से वियुक्त शुद्ध सत्ता नहीं है। जड़ों की सत्ता दूषित, सविशेष सप्रपंच है, किन्तु शुद्ध सत्ता निरुपद्रव, निर्विशेष आनंद रूप ही है और सब विनश्वर सत्ता है। यों तो वैषयिक आनंद भी विनश्वर है, अतः सदानन्द कहाँ? आनन्द, सत्ता दोनों परस्पर विशेषण हैं। वह आनन्द अबाध्य है, जगदानन्द बाध्य, इसीलिये वह श्रीकृष्ण का स्वरूप वास्तविक सद्रूप एवं आनन्द रूप है जो अत्यन्त अबाध्य नित्य स्वप्रकाश है। उसके सथ जब सत् लगा, तब सांसारिक से विलक्षणता, नित्यता आयी, एवं सत् में आनन्द न लगाते तो प्रापंचिक सत्ता आती। अतः सत् और आनन्द दोनों को लगाया। यह सत् और आनन्द परस्पर वियुक्त कभी नहीं होते, इसलिये वृषभानुनन्दिनी और श्रीकृष्ण परस्पर अन्तरात्मा हैं। एक तो यह कि जैसे जल में तरंग, वैसे परमरसामृत-मूर्ति श्रीकृष्ण में व्रजांगना, जैसे चन्द्रमा में चन्द्रिका, जैसे भानु से प्रभा का, वैसा उनका अविघटित स्वाभाविक संबंध है, किन्तु इससे भी अंतरंग यह सम्बन्ध है, जैसे अमृत में मधुरिमा, एवं जहाँ परमरसामृत मूर्ति श्रीकृष्ण वहाँ उनकी माधुर्याधिष्ठात्री वृषभानुनन्दिनी। अमृत से मधुरिमा को अलग किया, फिर अमृतत्त्व ही क्या? वेदान्ती गुण-गुणी का तादात्म्य मानते हैं। इसलिये सत्ता-आनन्दरूप वृषभानुनन्दिनी और श्रीकृष्ण दोनों एक ही हैं। एक ही सदानन्द रूप भगवान गौरतेज श्यामतेज रूप में राधा-माधव उभय रूप में प्रकट हुए। इसी दृष्टि से कहते हैं कि, श्रीकृष्ण का आंतरस्वरूप वृषभानुनन्दिनी और बाह्यस्वरूप पुमान् है तथा वृषभानुनन्दिनी का आंतरस्वरूप पुमान् और बाह्यस्वरूप वृषभानुनन्दिनी है। हितहरिवंश संप्रदाय में कहा है कि गौरश्याम शीशियों में श्यामगौर रस भरा हो, वैसे यह दोनों हैं। दोनों शीशी भी एक जाति की ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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