भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
इस रव का प्राधान्य इसलिये है कि उससे पूर्णतम पुरुषोत्तम प्रभु प्रकट होते हैं। वैसे तो प्रभु सर्वत्र हैं ही पर जब व्यंजक नहीं तब क्या? इसलिये भावुक व्यंग्य भगवान से भी अधिक व्यंजक नाम को बड़ा मानते हैं। अरबों की सम्पत्ति घर में भरी हो पर वह विदित नहीं तो उसका क्या उपयोग? घरवाला हल ही चलाता रहेगा। ‘नाम’ यह खजाने का बीजक है। पूर्णब्रह्म पुरुषोत्तम प्रभु ‘निधि’ हैं और ‘नाम’ उसका बीजक है। यही कहा है-
इस नामबीजक द्वारा प्रयत्न करने पर प्रभु प्रकट होते हैं। कहा है कि- ‘कहहुँ नाम बड़ ब्रह्म ते’, ‘राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल-कुमति सुधारी।।’ नाम मूल चिकित्सा है और राम पल्ल्व चिकित्सा।
श्रीराम ने भालु-बन्दरों को लेकर प्राकृत शतयोजन समुद्र पार किया किन्तु नाम लेने से अपार भवसिन्धु ही सूख जाता है। अतः सबसे नाम बड़ा है। वेदान्त कहते हैं कि वाक्य-श्रवण से तत्त्वसाक्षातकार होता है। भक्त भी भगवत्साक्षातकार का मूल श्रवण ही मानते हैं। निर्गुण-साक्षातकार का भी श्रवण की ही अपेक्षा है। व्रजांगनाओं को भी उद्बुद्ध उभयविधि श्रृंगाररसात्मा श्रीकृष्ण के लिये वेणुरव ही अपेक्षित है। इसलिये वह मूल वेणरव को पकड़ती हैं कि उसी रव से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकंद व्यक्त होंगे। जैसे हृदय में प्रथम से ही विराजमान निर्गुण परब्रह्म तत्त्व का श्रवण-मनन-निदिध्यासन द्वारा महावाक्य से ही साक्षातकार होता है उसी तरह सगुण साकार सच्चिदानन्द परब्रह्म का भी साक्षातकार उन चरित्रों एवं गुणगणों के श्रवण से होता है। चरित्र श्रवण से प्रथम चरित्र नायक भगवान का मानस रूप प्रकट होता है, उसी मानसी भगवदीय प्रतिमा का ध्यान करते-करते ही माया जवनिका के अपसारण से, जिससे कि भगवान आवृत होते हैं, उस भगवान का दिव्य रूप प्रकट होता है। इस तरह शब्द से ही भगवान का प्राकट्य होता है, फिर जहाँ भगवच्चरित्रों और भगवन्नामों से भगवान का प्राकट्य होता है तब साक्षात भगवान के मुखचन्द्र से निगत वेणुगीत पीयूष के पान से भगवान का प्राकट्य होना स्वाभाविक है। शब्द प्रकाशक और अर्थ प्रकाश्य होता है। शब्द ब्रह्मरूप में व्यक्त भगवदधरसुधा से भगवान का प्राकट्य होना स्वाभाविक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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