भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
व्रजांगनाएँ श्रोत्र द्वारा श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के वचन सुधा का पान करती हैं, उसमें यह इन्द्रियाँ दोना हैं। पानपात्र को क्या स्वाद आयेगा? कटोरा क्या स्वाद ले? तथापि उस रस को छूने वाला एक चषक भी अपने को कृतकृत्य मानता है, और हम तो परम्परया भी अपने को कृतार्थ मानते हैं। फिर इन्द्रियाँ और उसमें भी अधिक व्रजांगनाएँ कितनी भाग्यती हैं। हम इतना ही अपना भाग्य समझते हैं कि हम जिन इन्द्रियों के देवता हैं, उनके द्वारा व्रजांगनाएँ प्रभु के सौन्दर्य सौगन्ध्यादि का पान करती हैं, इसलिये ‘एषां तु भाग्यमहिमाऽच्युत तावदास्ताम्।’ जहाँ ब्रह्मादि देव ऐसा परम्परया कहते हैं, वहाँ व्रजांगनाएँ क्यों न कहें कि ‘अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः सख्यः’। सखि! हमारा-तुम्हारा संवाद है। संमति है कि नहीं? कहती है ‘इदं’ याने उस समय जो स्वरूप प्रस्फुरित होता था, जिसका ‘बर्हापीडं नटवरवपुः’ से वर्णन किया गया है, वही वृन्दावन बिहारी यहाँ ‘इदं’ से कहे गये हैं। व्रज में व्रजांगनाओं को श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का दर्शन होता ही है, फिर वे अत्यन्त आर्त क्यों? तो कहती हैं कि यद्यपि व्रजस्थ श्रीकृष्ण का दर्शन तो करती ही हैं, तथापि अन्यान्य स्वरूपों में इस समय का विशेष दर्शन है। ‘इदं इति बुद्धिस्थत्वादिदमा निर्देशः’ अर्थात द्वारकावासी, मथुरावासी, व्रजवासी सब भले ही एक हों, परन्तु मनमोहन का यह ‘नटवरवपु’ है। इन व्रजेशसुत नन्दराय सुवन श्रीकृष्ण और बलराम इनके गौओं को अपने वृन्दावन में निवेश कराते हुए वंशी विभूषित वक्त्र नेत्रों द्वारा जिसने देखा उसी की इन्द्रियों की सफलता है। बलराम यद्यपि व्रजेशसुत नहीं, तथापि ‘पालितपुत्रत्वात्’ यह आरोप है। कोई-कोई वसुदेव को भी व्रजेश कहते हैं, पर वह खींचा-तानी है। नन्दराय के पुत्र ललन कृष्ण और वसुदेव के बलराम, मगर व्रज यही समझता था कि दोनों व्रजेशनन्दन ही हैं। इसलिये ‘व्रजेशसुतयोः’ यहाँ द्विवचन कहा गया हैं ‘वक्त्रं’ यह एकवचन एकवद् भाव से हो सकता है, पर इसमें सरसता नहीं है। व्रजांगनाओं के मन में तो मनमोहन श्रीकृष्ण का ही अमृतमय मुखचन्द्र था। तब फिर ‘व्रजेशसुतयोः’ क्यों? इसलिये कहते हैं- ‘अनुवेणुजुष्टं’। यह श्री बलराम के मुख का व्यावर्तन है। व्रजेशसुत बलराम और श्रीकृष्ण, दोनों में जो वेणुजुष्ट है उसके सौन्दर्य-माधुर्य सुधा का पान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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