भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
इनके मन में सिवा श्रीकृष्ण के दूसरी बात ही नहीं है अथवा जब तक उनको होश-हवास था, तब तक अपने का सँभाला। कोई कुछ कहेंगे कि कुछ गड़बड़ी है क्या? ‘गुप्त प्रेम सखि सदा दुरैये’ इसलिए कहा- ‘हम तो दोनों की बात कर रही हैं अर्थात संभलकर द्विवचन दिया। ‘व्रजेश’ इसलिये कहा कि हम व्रज में बसती हैं, तो उनके लड़के की प्रशंसा करनी ही चाहिये। यहाँ तक तो ठीक, पर आगे सँभाले सँभल न सकीं। प्रभु का मुखचन्द्र सन्मुख आया, यह तो व्रजांगनाओं के हृदय के पूर्णानुरागरससार सरोवर से निकलने वाला ही है। जैसे तूफान से सागर उद्वेलित हो उठता है उसी प्रकार व्रजांगनाओं को हुआ, और वे अपने भावों को सँभाल न सकीं। यहाँ वल्लभाचार्य कहते हैं- जिन्हें भगवान ने आधिदैविक देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि इत्यादि का प्रदान किया है, उनके लिये यही परम फल है कि कृष्णचन्द्र के सौन्दर्यादि का आस्वादन करें। जैसे कोई कमलनेत्र पुरुष सदा अन्धकार ही में स्थित रहे तो उसके नेत्रों का होना ही निरर्थक है, वैसे ही भगवान ने कृपा कर आधिदैविक देहादि को प्रदान किया है, उनसे यदि प्रभु की सुधा का आस्वादन न किया, तो वे विफल हैं। हाँ, यह हो सकता है कि किंचित् काल अन्धकार में स्थिति हो, पर सर्वदा हो तो नेत्रों का होना न होना बराबर ही हो जायगा। इस स्थिति को वल्लभाचार्य ‘सर्वात्मभाव’ कहते हैं, अर्थात देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादि विस्मरण पूर्वक सर्वत्र श्यामसुन्दर का ही दर्शन होना। इस अवस्था में निजी अस्तित्व पृथक नहीं रहता, इसलिये स्वपार्थक्येन श्रीकृष्ण प्रभु का भी भान नहीं होता। इसीलिये उनके सुधा स्वादन का भी भान नहीं रहता, किन्तु इसे कदाचित्क, याने संचारी भाव कहते हैं। यह भाव (सर्वात्म भाव) विशेषकर विप्रयोग में मानते हैं। इसी को आन्तररमण भी कहते हैं अर्थात बाह्यसंप्रयोग न होने पर भी आन्तरसप्रयोग होता ही है। इसकी भी बड़ी महिमा गायी गयी है। कहते हैं- ‘संगमविरहविकल्पे वरमिह विरहो न संगमस्तस्य’। संगम और विरह, इनमें प्रियतम का विरह ही अच्छा है। क्योंकि संगम में प्रियतम एक ही हैं, विरह में निखिल विश्व ही प्रियतम हो जाता है। जिधर दृष्टि जाय उधर प्रियतम ही प्रियतम दिखलाई पड़ते हैं। फिर भी इस भाव को सार्वदिक् मानें तो गड़बड़ हो जाय, इसलिये ही कमल नेत्र पुरुष की उपमा दी। प्रभु के अधर सुधा का आस्वादन यही परम फल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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