भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
ध्यनाभ्यासी लोग अन्त में सर्व विस्मरण चाहते हैं। ‘विष्णुपुराण’, ‘भागवतादि’ में जहाँ ध्यान कहा है, वहाँ सांग, सपरिवार, सर्वभूषणादि सहित का ध्यान है किन्तु मन तो महाचंचल बेताल है। उसका एक जगह होना ही कठिन है, अतः मन प्रभु के भूषणों का ही चिंतन करे। मन अनेक विषयों में क्यों न स्थित हो, पर वह अनेकता प्रभु के स्वरूप में ही हो। वहाँ से उसको अलग न जाने देना बस ध्यान की यही सीमा है। चंचल बन्दर को पद्मासन में बैठकर निर्विकल्प समाधि कैसे लगे? तो उसके लिये यह उपाय करो- पहले एक बगीचे से यह बाहर न जाय। फिर एक ही वृक्ष पर, फिर एक ही शाखा पर बैठा रहेगा। मन बन्दर से भी अधिक चंचल है। क्षण में स्वर्ग से नरक तक दौड़ लगाता है। इसको पहले आलम्बन दो। भक्त गाथा श्रीकृष्ण की लीला आलम्बन है। फिर मूर्ति में ही रहे। इस प्रकार विषय संचार सीमित किया जाय। जितना अधिकाधिक विषय चिन्तन, उतनी ही चंचलता अधिकाधिक। जितनी श्रीकृष्ण चिन्तन में संलग्नता, उतनी स्थिरता अधिक। - ‘मामनुस्मरतश्चितं मय्येव प्रविलीयते।’ मक्षिका की सन्तान दुर्गन्धित वस्तु पर बैठती है, चन्दन पर नहीं। भावुक कहते हैं कि प्रथम श्रीकृष्ण के सर्वांग का भूषण सहित ध्यान, फिर श्रीअंगों का, फिर केवल मन्दहासयुक्त मुखचन्द्र का ही ध्यान करना चाहिये- ‘तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा।’ यदि सुस्मित मुखचन्द्र में मन एकाग्र हुआ, तो फिर कुछ चिन्तन न करे। अन्त में मुखचन्द्र का चिन्तन होते-होते और अलौकिक सौन्दर्य, माधुर्य सुधास्वादन में मन स्तब्ध हो जाता है, विभोर-विह्वल हो जाता है, वाग्-गद्गदा होती है, चित्त द्रवता है, सर्वेन्द्रियों को निश्चेष्टता प्राप्त हो जाती है। ‘प्रेम भरा मन’ श्रीभरत-राम संमिलन के अवसर पर भरत प्रेम रस में सराबोर हो गया, मन निज गति से रहित हो गया। उस समय न किसी ने कुछ कहा, न पूछा, कहा- ‘मन बुधि चित अहमिति बिसराई।’ इससे बढ़र निर्विकल्प समाधि कहाँ? चारों अन्तःकरण निश्चल हो गये। इस प्रेमामृत सिन्धु में जब प्रेमी का उन्मज्जन-निमज्जन होता है, तब फिर सर्व विस्मरण हो जाता है। कहा है- ‘यदा पन्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्।।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज