भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
इसीलिये ‘भागवत’ तृतीयस्कन्ध में कपिल-देवहूति संवाद में परब्रह्म का उपदेश कर सगुण साकार का ध्यान बतलाया है। पहले श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द के सर्व आभूषणों का चिन्तन करें। कहा है- ‘तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्नियुङ्क्ते।’ एवं भगवान के स्वरूप में उस मन को आसक्त कर सर्व विश्व से हटा ले। अन्त में प्रेमोन्माद में ऐसा होता है कि दूसरों का ध्यान दूर रहा, ध्येय स्वरूप भी छूट जाता है। किन्तु प्रेमी यह नहीं चाहते कि हमारे मन को भगवान भूल जायँ, क्योंकि वह मुमुक्षु के लिये है। भक्त मुमुक्षु नहीं होता, वह ब्रह्मलोकान्त विरक्त होकर प्रभु के मुखचन्द्र का दर्शन ही चाहता है। कहा है-
सर्वात्मभाव वाले भक्त को चाहे श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र के दर्शन में क्षणिक सर्वविस्मृति पुरःसर सर्वत्र प्रभु का ही भान हो जाय, पर सर्वदा के लिये यह इष्ट नहीं मानते। वह चाहते हैं कि सावधानी से प्रभु की सेवा करें। इसी भाव को लेकर कहा है- ‘अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः।’ यहाँ यद्यपि ‘चन्द्र’ पद नहीं दिया, तथापि आगे के ‘पीतं’ से ज्ञात होता है कि ‘चन्द्रमुख’ यदि चन्द्र न हो तो पेय कैसे हो? ‘पिबत भागवतं रसमालयं’ यहाँ निगम कल्पतरु से विगलित रसमय फल पीने के लिये कहा है। कहते हैं फल तो चोष्य होता है, पेय नहीं। उसमें बकला, गुठली होती है, अतः कहा ‘रसं’ अर्थात् ‘रसवत्’ (गुणवनान्मतुप्)। आम्रफल रसवान् होता है, उसमें भी कुछ त्याज्य होता ही है। यहाँ रसात्मकता कही इसीलिये कि यहाँ कुछ छोड़ने की चीज है ही नहीं। इसी अर्थ में यहाँ ‘पीबो’ कहा है। जिन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के वक्त्र का पान किया। इससे मुखचन्द्र का ग्रहण होता है। चकोरी जैसे अमृतमय चन्द्रमा की चन्द्रिका को पान करती है, वैसे ही व्रजांगनाएँ श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के अमृतमय मुखचन्द्र के सौरस्य-सौगन्ध्यादि समन्वित सुमधुर अधरसुधा चन्द्रिका का पान करती हैं। इसलिये यह प्राकृत वक्त्र नहीं, पूर्णानुराग-रससार-सागराविर्भूत चन्द्रमा है। इसीलिये वह निपान करने योग्य है। ऐसा जिन्होंने पान किया; उन्हीं के नेत्रों का साफल्य है। अथवा यह कि, सखि! जिन्होंने नेत्रों द्वारा अनुराग पुरःसर श्रीकृष्णचन्द्र व्रजेन्दनन्दन के मुखचन्द्र का दर्शन किया, वह परम सौभाग्यशाली हैं। उनमें भी वे जिन्होंने सर्वाभोग्या अधरसुधा का पान किया। यह एक प्रेमार्तिजन्य व्याकुलता है, अतृप्ति हे। उसके कारण जो अपनी सर्वस्व निजी, नित्य प्राप्त वस्तु है, उसमें भी दुर्लभता की प्रतीति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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