भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कहती हैं- सखि! मनमोहन के मुखचन्द्र का दर्शन करने वाले, द्वारकास्थ, मथुरास्थ, व्रजस्थ, मुखचन्द्र के दर्शन करने वाले, हम तो इस समय का, जबकि वे अपने सखाओं द्वारा वन में निवेशन करने वाले हैं, तब उनका दर्शन करती हैं। जिन्होंने ‘जुष्टं’ प्रीति-अनुराग-स्नेहपुरःसर ‘पौनःपुन्येन अभ्यसन’ किया, उसका साफल्य है। फिर जिन्होंने सर्वभोग्या अधरसुधा का पान किया, उनका क्या पूछना? ‘पशुननु’- व्रजांगनाएँ गौवों को जब अपने दर्शन में विघ्न समझतीं, तब उन्हें पशु कहने लगती हैं। कहती हैं उनका दर्शन हमें परम दुर्लभ है। जहाँ क्षण भी कल्पकोटिशत, वहाँ सम्पूर्ण दिवस कैसा बीतता होगा? निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्णचंद्र के आगमन की प्रतीक्षा करती रहती हैं। जब श्रीकृष्ण पधारते हैं तब धूलि उड़ती देख पानी भरने के व्याज से झरोखों में से धूलि में ही टकटकी लगाती हैं कि श्रीकृष्ण आते हैं। कहीं विलम्ब होता तो ब्रह्मा, रुद्र को कोसतीं कि जब श्यामसुन्दर आते हैं तब ऋष्यादि उन्हें वंदन करते हैं। अतः उन्हें आने में देर लग जाती है- ‘वंद्यमानचरणः पथि वृद्धैः’। यदि ब्रह्मादि वंदन करते हैं, तब व्रजांगनाओं को बड़ा खलता है कि देखो सखि! पहले तो उनके आने में देर और फिर ये अमर बीच में आये। इसी समय जब प्रभु सखाओं और गौओं की ओट में हो जाते हैं, तब गौओं को ‘पशु’ कहती हैं। जो हृदय न पहिचाने, वह पशु है। सखि! इनको हमारे हृदय का क्या पता? हमें विप्रयोग में कितना कष्ट होता है। यदि इनको हमारी पीड़ा मालूम होती, तो यह आड़ न हो जातीं। इसलिये गौ को पशु कहा। इन्हीं के लिये हमारा नित्य विप्रयोग होता है। ज्ञानदृष्टि से पशु हैं ब्रह्मनिष्ठ ‘सर्वानविशेषेण पश्यतीति पशुः’। यह सब अमर ब्रह्मनिष्ठ गोरूप में श्रीकृष्ण का दर्शन करने आये हैं। साथ-साथ विधाता को भी कोसती हैं कि, ‘जड़ उदीक्षतां पक्ष्मकृत् दृशान्’। जब सांयकाल को श्रीकृष्ण आते हैं और हमारे नैन दर्शन में संलग्न होते हैं, तब पलकें पड़ती हैं। यह बड़ा विघ्न है। इन पलकों को बनाने वाला जड़ था। यदि रसिक होता तो पलकें न बनाता। यह उसने बड़ी गलती की है। श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं:- व्रजांगनाएँ परस्पर कहती हैं, सखियों! आप लोग विधाता के दिये हुए नेत्र, श्रोत्र, त्वक्, मन, बुद्धि आदि को विफल कर रही हो। इसलिये धैर्य-लज्जा को जलांजलि देकर श्रीवृन्दावन में श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के अमृतमय मुखचन्द्र का दर्शन करके नेत्रादि को सफल करो- ‘यैर्दृष्ट्रंस्पृष्टं निपीतं तेषामेव इन्द्रियसाफल्यम्।’ यदि इन श्रोतों से श्यामसुन्दर के वचनामृत का पान नहीं किया तो बधिर होना ही अच्छा। यदि इन नयनों से मनमोहन का विलोकन नहीं होता, तो विलोचन न होना ही ठीक ही है। तभी तो जिन भावुकों को स्वप्न में भी इस रस का आस्वादन हुआ उन्हें अन्य दर्शनादि सुहाते नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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