भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कहा है- ‘लखी जिन लाल की मुस्कान, तिनहीं बिसरी सुध-बुध सबही।’ सुनते हैं कि एक बार सूरदास जी दर्शन के लिये वृन्दावन में पहुँचे। वहाँ प्रभु को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कुएँ में गिर पड़े। इतने में जिसको ढूँढ़ते थे, वही आया, - श्यामसुन्दर मनमोहन पधारे। अपनी विशाल भुजाओं से उन्हें बाहर निकाला। भगवान की मंगलमय भुजाओं का अमृतमय सुस्पर्श प्राप्त होते ही विदित हो गया कि यह प्राकृत वस्तु नहीं, ब्राह्मस्पर्श है। अहा हा! सूरदासी जी का शरीर रोमांचित हो उठा। सूर आनन्दोद्रेक में डूब गये। इतनें में भगवान कहते हैं- ‘अब हम जाते हैं।’ सूर ने कहा- ‘कैसे जाओगे?’ और पकड़ लिया। भगवान ने हाथ छुड़ा लिया। सूर कहते हैं- ‘अच्छा, “हस्तमुमत्क्षिप्य यातोसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्। हृदयाद्यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते।।” हे श्यामसुन्दर! हाथ छुड़ाकर भाग रहे हो! नाथ मैं जीव हूँ, आप अनंतकोटि ब्रह्माण्डनायक हो। इसलिये आश्चर्य नहीं। हम तब जानें, जब आप हृदय से निकलें।’ ‘प्रणयरशनया धृतांघ्रिपद्मः’ जैसे द्रवीभूत लाक्षा में जो रंग पड़े, वह स्थायी हो जात है, निकाले निकलता नहीं। रंग चाहे कितनी ही कोशिश करे कि मैं लाह से निकल जाऊँ या लाह चाहे जितनी कोशिश करे कि मैं रंग को निकाल दूँ, तो नहीं निकाल सकते। दोनों लाचार हैं। एवं भक्त के चित्त में से भगवान निकलना चाहें या भक्त भगवान को निकालना चाहे तो हो नहीं सकता। ऐसी विलक्षण परतंत्रता दोनों में हो जाती है। सारांश, प्रभु ऐसे भक्त-परंतत्र हैं। वे सूर के पास लौट आये। सूर ने कहा, ‘प्रभो! अपने मुखचन्द्र का दर्शन तो दीजिये’। सूरदास को प्रभु के श्रीअंग का संस्पर्श तो मिला ही था। भगवान ने दर्शन दिये, सूरदास कृतार्थ हो गये। जब प्रभु विदा होने लगे, तब सूरदास कहते हैं ‘नाथ! अब नेत्रों को ले जाइये! जिन नेत्रों से आपका दर्शन हुआ, उनसे क्या अब यह तुच्छ जगत देखा जायगा?’ '‘अनुरक्तकटाक्षमोक्षम्’- कहा कि लज्जा से कैसे देख सकोगी? पहले तो श्रीकृष्ण का दर्शन ही दुर्लभ, फिर जड़ विधाताकृत पलकें, फिर लज्जा, तब दर्शन इनमें से हो कैसे? तब कहा- “सखि! उनका मुखचन्द्र ऐसा है कि ‘अनुरक्तकटाक्षमोक्षम्।’ चलो तो, जैसे ही उनके मुखचंद का दर्शन करोगी वह अपने भ्रकुटीकाम की दण्ड को तानकर, नयनशरसंधान कर, कटाक्षों की वर्षा कर हृदय, बुद्धि, मन का हरण कर शुद्ध भावों की स्थापना करेंगे। लज्जादि को जलांजलि देनी होगी। जैसे सानुराग कटाक्षों का मोक्ष होता है, वैसे ही श्रीकृष्ण के अमुतमय मुखचन्द्र को देखोगी। शुद्ध रसास्वादन होगा।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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