भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कोई इस श्लोक का भाव ऐसा कहते हैं:- किसी व्रजांगना ने श्रीकृष्ण मनमोहन का वृन्दारण्य में जाते समय दर्शन किया था और जब तक धूलि दीख रही थी तब तक निर्निमेष अतृप्त एकटक दृष्टि से निहार रही थी। पर जब धूलि भी गयी तो चित्र लिखित सी बैठी हुई श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द को अलौकिक झाँकी देखती रही। उस समय वेणुगीत सुना। एकदम स्मृति आयी। आँखें झिलमिलायीं, तो दूसरी कहती है, सखि! नेत्र क्यों नहीं खोलती? कहाँ- ‘अक्षण्वतां फलमिंद’ सखि! श्यामसुन्दर का दर्शन ही परम फल था। वह इस समय दीख नहीं रहा है, फिर किस लिये नेत्र खोलें? अथवा आँख मीचे हुए श्रीकृष्ण-ध्यान में निमग्न व्रजांगना को देखकर दूसरी पूछती- ‘ऐसा क्यों?’ कहा ‘सखि! यह तो जो विशेष विह्वलता, दुर्दशा, मूर्छा, दीनता है, यह नेत्रों वालों का फल है। यदि नेत्र न होते, प्रभु के, मनमोहन के मुखचन्द्र का दर्शन न होता, तो यह दुर्दशा न होती।’ कहा- ‘सखि! क्या फल है? आपने अनुभव किया?’ ‘नहीं!’ ‘वयं सुविदाम एव’ हमने तो दूर से अनुभव किया। जिन्होंने सम्यक् पान किया, वही जाने सखि!!!’
इसका थोड़ा सा भाव कहकर फिर पहले श्लोक पर आयेंगे क्योंकि इसका उसमें सम्बन्ध है। ‘हे सखि! वृन्दावन में श्रीकृष्ण कैसे हैं?’ (इन व्रजांगनाओं को आसक्ति की महिमा से वहीं घर पर बैठे-बैठे श्रीकृष्ण का दर्शन हो रहा है) सुकोमल नवीन हरे-हरे, लाल-लाल आम्रपल्लव श्रीकृष्ण और बलराम के अंगों के भूषण हैं। मुकुट, कुंडल, हार, अंगद, कंकण, कांची, नूपुर इत्यादि रत्नमय भूषण हैं ही, किंतु इनके अतिरिक्त यह वेश सुकोमल, देदीप्यमान, अरुण, सरस आम्रपल्लव को धारण किया और मयूरपिच्छ से बनी हुई कलिकाएँ धारण कीं, उन कलिकाओं का मंडलमय मुकुट विशाल भाल पर विराजमान है। यह प्राकृतिक श्रृंगार है। मोरमुकुट के संनिधान में ही सजाव के साथ बर्हमय अर्थात मयूरपिच्छ के बने हुए गुच्छे हैं। उत्पल तथा अब्ज अर्थात रात्रिविकासी तथा दिवसविकासी दो प्रकार के कमलों की माला शोभती है। ऊपर से दामिनीद्युतिविनिंदक अद्भुत पीताम्बर से श्रीअंग आवृत है। यही परिधान अर्थात नीलाम्बर-पीताम्बर से विचित्र मनोरम वेशवाले वे श्रीकृष्ण-बलराम दोनों वृन्दावन के पशुपाल गोष्ठी में नटवर वेश धारण किये विराजमान हैं। कदचित् गायन और नृत्य भी करते हैं। यहाँ इसी श्लोक के आगे वेणु चर्चा है। इससे यह कहना है कि वह उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार रसात्मक श्रीकृष्ण नटवर वेश धारण किये हुए गोपाल वेश में रस का अभिनय करते हुए विराजमान हैं। ऐसे सरस उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मा श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के दर्शन का यही अवसर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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