भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
प्रसिद्ध है कि महर्षि वाल्मीकि का शोक ही श्लोक रूप में व्यक्त हुआ। ‘शोकः श्लोकत्वमागतः’। महर्षि अपने शिष्य भरद्वाज को लेकर तमसा तीर पर आये। वहाँ कौच-कौची विहार कर रहे थे। इतने में किसी व्याध ने क्रौच को बाण मारा। वह मर गया और क्रौची करुण-विलाप करने लगी। महर्षि का हृदय करुणारस सागर से भरपूर था। आश्रम में जानकी जी पधारी थीं, लोकापवादभय से श्रीमद्राम जी ने उन्हें लक्ष्मण द्वारा त्याग दिया था। जब लक्ष्मण को रथ पर विहल देखा तो जनक नंदिनी ने पूछा- ‘लक्ष्मण, आपकी यह दशा किस लिये? इस पर लक्ष्मण ने जो कहा वह सुनकर जनक नन्दिनी मूर्च्छित हो गयीं। उन्हें वहीं छोड़कर लक्ष्मण अयोध्या चले गये। वाल्मीकि ने शिष्यों द्वारा सुनकर जनक नन्दिनी से वृतान्त पूछा। अनन्तर उनका सान्त्वन कर ऋषि पत्नियों के संरक्षण में उन्हें रखा। वहाँ यथाकाल उनके दो पुत्र हुए। राम वियोग में जनक नन्दिनी के क्रन्दन से जो अद्भुत कारुण्य रस सागर हृदय में लहरा रहा था, वही क्रौंची विलाप से उमड़ पड़ा।
यदि बुद्धिपूर्वक लिखा गया श्लोक नहीं, शोक ही श्लोक बन गया है। कोई भी कोई बात समझ के साथ कहे वह उद्गार नहीं। रस में उफान आ जाता है। वह उच्छलित हो उठता है। संकुचित दिव्यपात्र में भरपूर रस वायु के हलचल से या किसी अन्य कारण से उच्छलित हो उठे, वह उद्गार है। इसी से भावुक श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द के मंगलमय, परम पवित्र चरित्र का हृदय में अवगाहन करते हैं, वही कहीं प्रश्नवशात् लीलासुधा रससार परमानन्द रसामृतमूर्ति भगवान जब निकलते हैं, तो कथासुधा रूप में। यही व्यक्त अग्नि है। भावुकों के मुखपंकज से विनिःसृत’ श्रीकृष्ण कथासुधा श्रोत्रों द्वारा भक्त हृदय में गयी तो वहाँ भी कृष्णस्वरूप व्यक्त हो उठता है। ‘ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं’ के अनुसार वैसे तो सब भगवान हैं ही, पर अव्यक्त रहते हैं। जिसको वे व्यक्त हैं उसके मुखपद्म से कथासुधा रूप में जहाँ गये वहाँ पर भी व्यक्त हो जाते हैं। बस फिर जहाँ ही श्रीकृष्ण की आत्मा व्यक्त होती है, वहीं आत्मा-राम श्रीकृष्ण का रमण होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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