भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
वस्तुतः काष्ठ, अग्नि भी पृथक-पृथक वस्तु नहीं है। आत्मा से ही आकाश, उससे वायु, वायु से तेज उत्पन्न हुआ। तेज से ही जल, उससे पृथ्वी, उसी से काष्ठादि और यह सिद्धान्त है कि कारण से भिन्न कार्य नहीं। फिर तो जैसे मिट्टी से उत्पन्न घट मिट्टी से पृथक नहीं वैसे ही तेज से उत्पन्न तेज से पृथक नहीं, जल से उत्पन्न पृथ्वी और उससे उत्पन्न काष्ठ भी अग्नि या तेज से भिन्न नहीं। इस तरह काष्ठ, अग्नि का भी वास्तविक भेद नहीं रहता। तथापि काष्ठ तेज का आवरक होता है। कार्य से कारणस्वरूप का आवरण होता ही है। एवं सर्व तत्त्वों की आनन्दस्वरूपता आवृत है। जहाँ माधुर्यसारसर्वस्व सुमधुर अधरसुधा के वेणुगीत पीयूष का आस्वादन प्राप्त होता है, वहाँ उस व्यक्त आनन्दस्वरूप से आनन्द व्यक्त होता है, वही आत्मरति श्रीकृष्ण का रणम भी होता है। यह लचर दलील की बात नहीं, शुद्ध भित्ति पर स्थित सिद्धांत है। अगर कोई समझना चाहता है तो समण ले। तात्पर्य यह कि श्रीकृष्ण का रमण आत्मा में है, अनात्मा में नहीं। अभिव्यक्ति कई तरह से होती है। जिन्हें वंशीगीत सुनने को नहीं मिला उन जीवों को ‘प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वाना भावसरोरुहम्’ के अनुसार भगवान की मंगलमयी कथासुधा के श्रवण से स्वाभाविक आनन्दरूपता व्यक्त होती है। सर्वत्र इसीलिये श्रवण ही मुख्य कहा है। ‘मद्गुणश्रुतिमात्रेण’, ‘द्रुतस्य भगवद्धर्मात् धारावाहिकतां गता’, ‘आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः’ इत्यादि से श्रवण का माहात्मय स्पष्ट है। भगवान के गुणगणों के श्रवण से अन्तःकरण में भगवान का प्राकट्य होता है। गुणचरित्र श्रवण द्वारा भगवान के स्नेह से द्रवीभूत चित्तवृत्ति का भगवान की ओर अखण्ड प्रवाह ही भक्ति है। श्रवण से भगवान अवश्य भक्त के हृदय में व्यक्त होते हैं, परन्तु श्रवण भी उसी तरह का हो। उच्चकोटि के परमहंस भावुक अपने हृदय में भगवत्तत्त्व अनुभव करते हुए ‘भावना’ से उसका परिवर्धन करते हैं। जैसे कहीं का थोड़ा स्त्रोत बहुत जगह के झरने से बड़ा होता है वैसे जो कोई भावुक पूर्णरूप से श्रवण, मनन, निदिध्यासनों से भगवत्तत्त्व का हृदय में साक्षात्कार, अवगाहन, चिन्तिन किया करते हैं वहाँ वही रस सर्व अन्तःकरण, प्राण, रोम-रोम में भरपूर होता है। कहीं किसी तरह से उसका उद्गार कथासुधारूप में निकला, तब वह प्राकृत कथा नहीं, भगवत्तत्त्व ही उस रूप से व्यक्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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