भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
ईश्वर में अनुराग का विधान किया जाता है, भगवान में भक्ति की विधि बतलायी जाती है। विधिरत्यन्तमप्राप्तौ अत्यन्त अप्राप्ति में ही विधि होती है, जैसे- ‘अग्निहोत्रं जुहुयात स्वर्गकामः।’ यहाँ अग्निहोत्र में स्वाभाविक प्रीति नहीं, वैसे ही भगवान में प्रीति स्वाभाविक नहीं, इसलिये विधि होती है, “तस्मात् भारत सर्वात्मन् भगवान हरिरीश्वरः। श्रोतव्यः कीत्र्तितव्यश्च” इत्यादि, अभय कामना वाला प्राणी भगवान में भक्ति करे। इस तरह विधि जहाँ है तहाँ उसकी अप्राप्ति समझी जाती है, एवं प्राणि स्वभाव ऐसा है कि जहाँ विधि तहाँ प्रेम कम। जैसा माता-पिता में पुत्र का प्रेम तब तक, जब तक स्त्री नहीं; स्त्री में प्रीति, माता-पिता में नहीं; माता-पिता की प्रीति में पुण्य कहा है। ‘मातृदेवी भव पितृदेवो भव’ इत्यादि वाक्यों में विधान किया है। इतना ही नहीं, मातृ-पितृ-प्रीति न रहने पर हानि भी बतलायी गयी है, तात्पर्य, देवता-प्रीति से माता आदि में प्रीति अधिक सम्भव है। मातृ-पितृ-प्रीति से देवता प्रीति कठिन है, माता जैसा प्रेम अगर भगवान में हो तो क्या पूछना है, मगर न होने से ही भगवान में प्रीति का विधान किया गया। भगवान की अपेक्षा मातृप्रीति स्वाभाविक है, आगे चलकर मातृप्रीति से भी स्त्रीप्रीति स्वाभाविक है। इसीलिये यहाँ पर “मातृदेवो भव” इत्यादि से मातृप्रीति का विधान किया गया है। आगे बढ़कर ‘स्वदाररति’ की विधि बतलायी गयी है, इसलिये कि अपनी स्त्री पर प्रीति की अपेक्षा उच्छृंखल मनोवृत्ति वालों को कुलटा में, वेश्याओं में प्रीति अधिक होती है, इसी स्वाभाविकता में शास्त्रों न लगाम लगायी। प्राणी स्वभाव से ही कामचार होता है। जो जल बहा जा रहा है उसे रोकने के लिये ही बाँध बाँधा जाता है। यही अर्थ श्रुति-सेतु का है। विधान-निषेध यह बंध है, वह प्राणी की उच्छृंखलता, स्वाभाविकता को नियन्त्रित करने के लिये है, किन्तु जैसे बहते जल को रोकने का प्रयत्न करो, तब वह तोड़ मारता है, वैसे ही स्वाभाविक प्रीति को रोकने से वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। संसार में यह दोष होने से सर्वथा हेय है, परन्तु जो संसार में दोष, वही भगवान में गुण है। अर्थात भगवान के सम्बन्ध में गुण भी दोष हो जाते हैं, जो भगवान अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक, सर्वान्तरात्मा, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् निरुपाधिक परप्रेमास्पद हैं, उसमें पुराण, शास्त्र, वेद कहते हैं कि अपनी मनोवृत्तियाँ सांसारिक तुच्छ वस्तुओं से विमुख होकर भगवान की ओर प्रवाहित हो उठें, इसी में पूर्ण कृतकृत्यता है, लेकिन वह बड़ा कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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