भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कुछ बड़े-बड़े योगी अमलात्मा परमहंस मुनीन्द्र यतीन्द्र योगी समाधि आदि से वैसा करने में समर्थ होते हैं। मगर यहाँ तो वैसी परिस्थिति नहीं है, यहाँ तो ऐसा हो जाय कि वही सच्चिद्घन पूर्णतम पुरुषोत्तम सर्वान्तरात्मा भगवान स्वाभाविक परप्रेमास्पद हो जाय। जैसे किसी कामिनी को प्रियतम प्रेष्ठतम प्राणेश्वर के उत्कट सम्मिलन की उत्कंठा हो, वैसे स्वाभाविकी उत्कट उत्कंठा भगवान में हो जाय। जो कोई रोकने को उपस्थित हो उसे तोड़ मारे, वह स्थिति यहाँ आयी, श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन मनमोहन नटवरवपु हैं तो सामान्य जनों को अलौकिक में प्रीति नहीं। पर लौकिक में प्रति हो तो उससे नरक हो। प्रीति मात्र तो विवक्षित है नहीं, उससे मतलब नहीं, नहीं तो सारा संसार किसी न किसी में प्रीति होने के कारण मुक्त हो जाय। नहीं, प्रीति ही अलौकिक में। भगवान हैं तो अलौकिक, किन्तु बनेंगे नर, ‘नटवरवपुः’, अति अद्भुत विचित्र वेशधारी, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक की अलौकिकता कहीं प्रकट हो जाय तो काम बिगड़ जाय। इसलिये अलौकिकता को छिपाकर लौकिक स्वरूप में प्रगट होना पड़ता है, जिससे लोगों की प्रीति में स्वाभाविकता हो। इसीलिये ‘बबन्ध प्राकृतं यथा’ जैसे प्राकृत को बाँधते हैं, वैसे यशोदा अपने लाला को बाँध लेती है। ‘प्राकृतं यथा’- हैं तो अप्राकृत, पर बाँध लेती है प्राकृत जैसे। कहा ही है- “ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावें।”
हे नाथ! आपकी वह लीला व्यामोह-सिन्धु में उन्मज्जन-निमज्जन कराती है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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