भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
नवनीत-भांडों को फोड़कर उलूखल पर विराजमान श्यामसुन्दर नवनीत को अपने मुख में छोड़ते, अपने ग्वालबालों के मुख में छोड़ते, रामावतार के साथी बंदरों के मुख में देते हैं तथा लौट-लौटकर देखते हैं कि कहीं मैया तो नहीं आती। इतने में देखा तो मैया आयी, प्रांगण में भागते लाला को देखकर, अम्बा छड़ी लेकर दौड़ी, अम्बा को देख प्रभु भी भयभीत होकर उलूखल से कूदकर भागे। यशोदा मैया व्रजरानी भी पीछा करने लगी, किसका? “न यमाप योगिनां क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः।” जिसको अमलात्मा परमहंस यतीन्द्रों का निर्मल चित्त पकड़ने में समर्थ न हुआ उसी पूर्णतम पुरुषोत्तम अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक निखिलरसामृतमूर्ति प्रभु को नंदगेहिनी ‘लाला आज तो तुझे बना दूँगी’ कहकर पकड़ना चाहती है। किसी तरह प्रभु पकड़ में आयें। यशोदा कहती, ‘लाला तू बड़ा लंगर हो गया है, मैं आज तेरा सब लंगरपन भुला दूँगी।’ कुन्ती कहती, नाथ! इतना कहकर जब यशोदा मैया ने रज्जु ली तब तो आपकी विचित्र दशा हुई। आपके नीलकमल-कोशसमान कपोल पर अंजन मिश्रित अश्रु बिंदु बड़े ही सुशोभित मालूम पड़े, सिर नीचा किया हुआ, आँखें डबडबाई हुईं; अंजन मिश्रित अश्रु कपोलों पर ऐसे शोभित होते हैं जैसे नील कमल के कोशों पर मोती विराजमान हों। क्या शोभा कहीं जाय! आप डर रहे हैं। भयभीत होकर अपने मुखारविन्द को नीचा किये रोते हैं, जिनके डर से डर भी डरे, जो कालकाल महाकालेश्वर महामृत्युंजय-
सकल प्रपन्च को मृत्युरूप दाल-शाक के साथ मिलकर जो खा जाय, वह व्रजगेहिनी की छड़ी से डरे। यह सब भाव जब अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायकता प्रकट होती, तब न रहता। एक जगह कहा है, “मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम्”- भगवान भक्तों को मुक्ति दे देते हैं, भक्ति जल्दी नहीं देते, क्योंकि भगवान को भक्ति के भाव बन्धन में बँधकर परतन्त्र हो जाना पड़ता है, यहाँ स्वाभाविक प्रेम है। इसी कारण वृन्दारण्य में ग्वाल बालों को, व्रजांगनाओं को विष्णु-शिव तत्त्वात्मक परमात्मा में वैसी प्रीति न होती, वैसी उत्कण्ठा न होती, जैसी “नटनरवपु” भगवान में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज