भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री शिवतत्त्व
हस्ति-शुण्ड से समान विशाल, भूतिभूषित, सुडोल, गोल, तेजोमय अंगद-कंकण-शोभित भुजा, मुक्ता मोतियों के हार, नागेन्द्रहार, व्याघ्रचर्म, मनोहर चरणारविन्द और उनमें सुशोभित नखमणिचन्द्रिकाएँ भावुको को अपार आनन्द प्रदान करती हैं। हिमाद्रि के समान धवलवर्ण स्वच्छ नन्दीगण पर विराजमान रुदाशक्तिरूपा श्रीउमा के संग श्रीशिव ठीक वैसे ही शोभित होते हैं, जैसे धर्मतत्त्व के ऊपर ब्रह्मविद्यासहित ब्रह्म विराजमान हों, किंवा माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति के साथ मूर्तिमान होकर परमानन्दरसामृतसिन्धु विराजमान हो। भगवान की ऐसी सर्वमनोहारिता है कि सभी उनके उपासक हैं। कालकूट विष और शेषनाग को गले में धारण करने से भगवान की मृत्यंजयरूपता स्पष्ट है। जटामुकुट में श्रीगंगा को धारण कर विश्वमुक्ति मूल को स्वाधीन कर लिया। अग्निमय तृतीय नेत्र के समीप में ही चन्द्रकला को धारण कर अपने संहारकत्व-पोषकत्वरूप विरुद्ध धर्माश्रयत्व को दिखलाया। सर्वलोकाधिपति होकर भी विभूति और व्याघ्रचर्म को ही अपना भूषण-वसन बनाकर संसार में वैराग्य हो ही सर्वापेक्षया श्रेष्ठ बतलाया। आपका वाहन नन्दी, तो उमा का वाहन सिंह, गणपति का वाहन मूषक, तो स्वामी कार्तिकेय का वाहन मयूर है। मूर्तिमान त्रिशूल और भैरवादिगण आपकी सेवा में सदा संलग्न हैं। ब्रह्मा, विष्णु, राम, कृष्णादि भी उनकी उपासना करते हैं। नर, नाग, गन्धर्व, किन्नर, सुर, इन्द्र, बृहस्पति, प्रजापति प्रभृति भी शिव की उपासना में तल्लीन हैं। इधर तामस से तामस असुर, दैत्य, यज्ञ, भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, वृश्चिक, सर्प, सिहं सभी आपकी सेवा में तत्पर हैं। वस्तुतः परमेश्वर का लक्षण भी यही है कि उसे सभी पूजें। पार्वती के विवाह में जब भगवान शंकर प्रसन्न हुए, तब अपनी सौन्दर्य-माधुर्य-सुधामयी दिव्य मूर्ति का दर्शन दिया। बरात में पहले लोग इन्द्र का ऐश्वर्य, माधुर्य देखकर मुग्ध हो गये, समझा कि यही शंकर हैं और उन्हीं की आरती के लिये प्रवृत्त हुए। |
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