भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री शिवतत्त्व
श्रीकृष्ण ने उपमन्यु महर्षि से दीक्षित होकर भगवान अम्बासहित श्रीशिव की आराधना करके दिव्य वर प्राप्त किया था। धर्मराज युधिष्ठिर ने जब भीष्म जी से शिवतत्त्व के सम्बन्ध में प्रश्न किया, तब उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट करके कहा कि ‘‘श्रीकृष्ण उनकी कृपा के पात्र हैं, उनकी महिमा को जानते हैं और वही कुछ वर्णन भी कर सकते हैं।’’ युधिष्ठिर के प्रश्न से श्रीकृष्ण ने शान्त, समाहित होकर यही कहा कि ‘‘भगवान की महिमा तो अनन्त है, तथापि उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को अति संक्षेप में कहता हूँ।’’ यह कह कर बड़ी ही श्रद्धा से उन्होंने शिव-महिमा का गायन किया। विष्णु भगवान ने तो अपने नेत्रकमल से भगवान की पूजा ही है। उसी भक्त्त्युद्रेक से उन्हें सुदर्शन चक्र मिला है। शिव-विष्णु को तो परस्पर में ऐसा उपास्योपासक सम्बन्ध है कि जो अन्यत्र हो ही नहीं सकता। तम काला होता है। और सत्त्व शुल्क, इस दृष्टि से सत्त्वोपाधिक विष्णु को शुक्लवर्ण होना था और तम उपाधिक रुद्र कृष्णवर्ण होना था और सम्भवतः हैं भी वे स्वरूपः हैं भी वे वैसे ही, परन्तु परस्पर एक-दूसरे की ध्यानजनित तन्मयता से दोनो के ही स्वरूप में परिवर्तन हो गया। अर्थात विष्णु कृाष्णवर्ण और रुद्र शुक्लवर्ण हो गये। मुरलीरूप से कृष्ण के अधरामृतपान का अधिकर शिव को ही हुआ। श्रीकृष्ण अपने अमृतमय मुखचन्द्र पर, सुमधुर अधरपल्लव पर पधराकर अपनी कोमलांगुलियो से उनके पादसंवाहन करते, अधरामृत का भोग धरते, किरीट-मुकुट का छत्र धरते और कुण्डल से नीराजन करते हैं श्रीराधारूप से श्रीशिव का प्राकट्य होता है, तो कृष्णरूप से विष्णु का, कालीरूप विष्णु का तो शंकररूप से शिव का। इस तरह ये दोनों उभय-उभयात्मा, उभय उभयभावात्मा हैं। श्रीशिव का सगुण स्वरूप भी इतना अद्भत, मधुर, मनोहर और मोहक है कि उस पर सभी मोहित हैं। भगवान को तेजोमयी दिव्य, मधुर, मनोहर विशुद्धसत्त्वमयी, मंगलमयी मूर्ति को देखकर स्फटिक, शंख, कुन्द, दुग्ध, कर्पूरखण्ड, श्वेताद्रि, चन्द्रमा सभी लज्जित होते हैं। अनन्तकोटि चन्द्रसागर के मन्थन से समुद्रभूत, अद्भुत, अमृतमय, निष्कलंक पूर्णचन्द्रक भी उनके मनोहर मुखचन्द्र की आभा से लज्जित हो उठता है। मनोहर त्रिनयन, बालचन्द्र एवं जटामुकुट पर दुग्धधवल स्वच्छाकृति गंगा की धारा हठात मन को मोहती है। |
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