भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भगवान परमानन्दकंद श्रीकृष्णचन्द्र नटवर वपु को धारण किये, बर्हमय आपीड़ को धारण किये, वैजयन्ती माला को पहने, कानों में कर्णिकार पहने, गोपवृन्द के संग वेणु को अधरसुधा से पूरित करते हुए श्रीवृन्दारण्य धाम में पधारे। अनन्त ब्रह्माण्ड के प्राणियों को आनन्दित करने वाले रसों के उद्गम-स्थान, निखिल रसामृत सिन्धुसार से प्रभु श्रीकृष्ण के अंगों का निर्माण है। निखिल रसामृतमूर्ति होते हुए भी विशेषतः उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररस से आपके श्रीअंग का निर्माण है। अन्यत्र सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक दोनों ही श्रृंगार एक-कालावच्छेदेन उद्बुद्ध एवं उद्वेलित नहीं होते। यहाँ परस्पर विरुद्ध धर्माश्रय अणोरणीयान् महतो महीयान् प्रभु श्यामसुन्दर में तो दोनों ही प्रकार के श्रृंगार रस एककालावच्छेदेन व्यक्त होते हैं।
अद्भुत प्रेमोन्माद में श्रीकृष्ण और वृषभानुनन्दिनी को सम्प्रयोग में भी विप्रयोग और विप्रयोग में भी सम्प्रयोग की स्फूर्ति होती है। अस्तु, इस तरह उद्वेलित सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उभयविध श्रृंगार रस सारसर्वस्व से ही नटनागर के श्रीअंग का निर्माण हुआ है। अतः वे नटवरवपु हैं, अथवा “नटवरवपुः-नटेम्योऽपि वरं वपुः यस्य सः।” नटों से भी वरशोभन, सुन्दर वपु को धारण किये हुए भगवान पधारे। नट तो बहुत हैं, नाचने वाले सब ही हैं, पर व्रजमोहन श्रीकृष्णचन्द्र का नटवरवपु कुछ लोकोत्तर ही है, भगवान शंकर विश्वनाथ का तांडव नृत्य प्रसिद्ध है, जिसको देखने के लिये सम्पूर्ण इन्द्र, चन्द्र, वरुणादिक देवता, अप्सरा, सिद्ध, महर्षि, यक्ष, किन्नरादिक सर्व पधारते हैं। प्रदोषकाल में जब भगवान नटराजराज भूतभावन विश्वनाथ का तांडव नृत्य होता है, तब सब देव तो क्या, स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र भी पधारते हैं, उनका ऐसा अद्भुत नृत्य है इसीलिये वह नटराजराज हैं। उनके जैसा तांडव नृत्य किसी का नहीं, पर श्रीकृष्ण परमानन्दकंद मनमोहन व्रजेन्द्रनन्दन का तांडव नृत्य तो ऐसा विलक्षण है जो कालिय नाग के फणों पर हुआ। उसकी सामग्री भी विचित्र है, जब प्रभु कालिय ह्नद में प्रविष्ट हुए, उनके उन्नत फणों पर जब नृत्य करने लगे, तब देवता, अप्सरागण वाद्य बजाने लगे। इस नृत्य के लिये दूसरा उदाहरण ही नहीं है, इसलिये ‘नटवरवपुः’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज