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किसी ने श्रीकृष्ण से कहा- “महाराज! ललिता, विशाखा आदि आपकी प्रियतमाएँ आपके वियोग से अत्यन्त दुःखी हैं, आप एक बार व्रज में जाकर उन्हें दर्शन क्यों नहीं दे आते?” श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि “अब उन्हें हमारी आवश्यकता ही नहीं रही। क्योंकि हम जब उनके पास रहते हैं, तब उन्हें हमारा केवल वाह्य रमण ही अनुभूत होता है किन्तु मेरे समीप न रहने पर मानस संस्मरण की विशेषता से उन्हें हमारे सर्वांगीण आन्तर रमण का अनुभव होता है- इस तरह जैसे सम्प्रयोगकाल में भी विप्रयोग का अनुभव होता है, वैसे ही विप्रयोग अवस्था में कभी-कभी सम्प्रयोग का आनन्द प्राप्त होता है। इसी स्थिति का वर्णन इस श्लोक में मिलता है-
- “प्रासादे सा पथि पथि च सा पृष्ठतः सा पुरः सा,
- पर्यंके सा दिशि दिशि च सा तद्वियोगातुरस्य।
- हंहो चेतः प्रकृतिरपरा नास्ति में कापि सा सा,
- सा सा सा सा जगति सकले कोऽयमद्वेतवादः।।“
जब विप्रयोगात्मक श्रृंगार उद्वेलित होता है तब सकल जगत प्रभुमय हो जाता है, अतः ‘नटवत्’ कहा। सभ्यों का रसास्वादन कराने के लिये जैसे नट विचित्र स्वरूप को धारण करता है, वैसे ही श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ने श्रीव्रजांगनाों के मन को आकर्षित करने के लिये विचित्र वेश धारण किया है। एवंच ‘वर’ पद सेे प्रत्यग्रभोक्ता, दूल्हा लिया जाता है। विवाहार्थ जाते हुए वर जैसे सर्वापेक्षया अधिक सुन्दर वस्त्र, आभूषण आदि धारण कर अपने को सुसज्जित करता है, वैसे ही श्रीकृष्ण भी सुन्दर वेश धारण कर श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में पधारे। ‘वर’ पद सम्प्रयोगात्मक श्रृंगार का द्योतन करता है। इस तरह नटवर वपु से उद्बुद्ध सम्प्रयोगात्मक, विप्रयोगात्मक उभयविध श्रृंगार रसात्मकता भगवान श्रीकृष्ण की बतलायी गई है।
- ‘बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
- विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्ती च मालाम्।
- रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्गोपवृन्दै-
- वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः।।
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