भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
यदि कहें कि केवल इन व्रजवासियों को ही नहीं, उनके समस्त कुल को मैं अपने आपको देकर ऋ़णमुक्त हो जाऊँगा तो भगवन! क्या जो व्यवहार आपको विष मिश्रित स्तन्य-पान कराने वाली पूतना के साथ, वही इन धाम, अर्थ, सुहृत, प्रिय देह, पुत्र, प्राण एवं अन्तरात्मा आदि सब कुछ आपके श्रीचरणों पर न्यौछावर करने वाले इन व्रजवासियों के साथ भी उचित होगा? क्या “टके सेर भाजी, टका सेर खाजा” वाली बात होगी? पूतना के कुल-कुटुम्ब में ही ऐसा कौन बचा है जिसे आपने सद्गति न प्रदान की हो? तृणावर्त, अघासुरादि सभी पूतना केे कुटुम्बियों को तो आपने आत्मसमर्पण किया है। अस्तु, तात्पर्य यह निकला कि विष प्रदान करने वाली पूतना को भी जिन्होंने आत्मसमर्पण किया, योगीन्द्र मुनीन्द्रों को स्वप्न में भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन कमलदल से भी शतकोटि गुणित अधिक कोमल अपने श्रीचरणों से उसके अंग पर क्रीड़ा की, जिसके प्रभाव से पूतना का शव जब जलाया गया, तब उसमें से ऐसी दिव्य सुगन्धि का प्रसार हुआ जो तीन योजन की आसमंतात् भूमि में व्याप्त हो गया, उस कृपा सिन्धु भगवान श्रीकृष्ण से अधिक दयालु कौन होगा? इस श्लोक को श्रवण करते ही श्रीशुकदेव जी गद्गद हो गये और व्यास जी के पास जाकर उनसे समस्त ‘भागवत’ का अध्ययन किया। ऐसे योगीन्द्रों के भी निर्गुण ब्रह्मनिष्ठ, शान्त, समाहित अन्तःकरणों को अपने दिव्य सुमधुर मनोहर सौरम्य, सौगन्ध्य, सौन्दर्य आदि गुणगणों से आकर्षित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपने ग्वाल बालों के साथ श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में पधारे। कैसे पधारे? “नटवरवपुः विभ्रत्” अर्थात नट के समान और वर के समान श्रृंगार धारण करके पधारे। यहाँ ‘नट’ पद से विप्रयोगात्मक एवं ‘वर’ पद से सम्प्रयोगात्मक श्रृंगार रस अभिप्रेत है। नट चन्द्रमा, वायु आदि वास्तविक सामग्रियों के अभाव में भी अपने अभिनयों द्वारा रस का अभिव्यंजन करता है। प्रियतम के साथ सर्वांगीण संश्लेष विद्यमान होने पर भी अकस्मात् वियोगजन्य तीव्र ताप का अनुभव होता है। ‘नट’ पद से उसी विप्रयोगात्मक श्रृंगार रस का ग्रहण किया है। भावुकों के यहाँ सम्प्रयोगात्मक श्रृंगार की अपेक्षा विप्रयोगात्मक श्रृंगार का अधिक सम्मान है इसीलिये अभ्यर्हितत्त्वात् नट पद का प्रयोग पहले किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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