भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
नट से, नटराज से, नटराजराज से भी शोभन वपु को भगवान ने धारण किया। यह स्वरूप ऐसा है, जिसे देखकर चर-अचर, जड़-चेतन सब नाच उठे, इसलिये ‘नटनं आनंदोल्लासविकारं राति ददातीति नटवरं तद्वपुरिति नटवरवपुः’- जो स्थावर-जंगम सबको आनन्दोल्लास प्रदान करे, वही नटवर है। इसकी विशेषता क्या कही जाय, औरों की तो बात ही क्या, वह स्वरूप स्वयं व्रजेन्द्रनंदन श्यामसुन्दर मनमोहन भगवान को ही नचा देता है। भगवान नाचे ही-
नन्दरानी के मणिमय प्रांगण में घुटनों को टेकते हुए चलते-चलते आप अपने मुखचन्द्र के प्रतिबिम्ब को देखकर मुग्ध हो गये, नाच उठे।
अपने श्रीअंग के सौन्दर्य को देखकर, अपने मुखचन्द्र का प्रतिबिम्ब देखकर स्वयं चाहते हैं मैं इसे ले लूँ, प्यारी वस्तु बिना हृदय में रखे दूर से देखने में संतोष नहीं होता। वास्तव में यह भावना भक्तों की होती है, पर वही भावना व्रजेन्द्रनंदन श्यामसुन्दर मनमोहन को अपने श्रीअंग का प्रतिबिम्ब देखकर हुई और वे उसे लेना, पकड़ना चाहते हैं किन्तु वह पकड़ने में आता नहीं इसलिये खिन्न हो गये और व्रजरानी अम्बा का मुख देखकर रोने लगे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक जिसे देखकर मुग्ध हो गये, तब उसे चराचर विश्व देखकर नाच उठे, इसमें आश्चर्य ही क्या? भगवान अपनी सर्वज्ञता सर्वशक्तिमत्ता सब कुछ भूल गये, इस प्रकार स्वयं भगवान को ही विस्मय में डाल दिया ऐसा वह स्वरूप है- “भूषणानां भूषणानि अंगानि यस्य सः।।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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