भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
उत्तरा के गर्भ में परीक्षित को जो भगवद्दर्शन हुआ वहाँ भगवान ने उत्तरा के गर्भ में क्या कहीं बाहर से प्रवेश किया था? वे तो सर्वप्रकाशक, सर्वव्यापक होने से वहाँ भी थे ही, केवल अपने परम मंगलमय दिव्य अनुग्रह से मायाजवनिका का अपसारण करके प्रकट हो गये। इन सब विवेचनों से स्पष्ट हो गया कि निःसन्देहरूप से परमार्थ तत्त्व ही शब्द ब्रह्म के रूप में भावुकों के मुख द्वारा निकलता है और वही भावुकों के कर्णरन्ध्र द्वारा हृदय में आविर्भूत होता है यह असाधारण कथासुधा की चर्चा है। इधर भगवान ने सोचा कि स्मरवेग से विक्षिप्त मनस्क इन व्रजांगनाओं से गीतार्थ का वर्णन न बन सकेगा, अतः निखिलरसात्मक निज मूर्ति को निरावरण बनाकर वेणुगीत पीयूषरूप में कर्णकुहर द्वारा गोपिकाओं के हृदय-पंकज में पहुँचायें। यह गीत पूर्व कूजनादि की अपेक्षा से अद्भुत है। भावुकों ने श्रीकृष्ण को फलात्मक माना है, साधन नहीं। सुख फलात्मक होता है अतः उसके ही स्त्री-पुत्रादि साधन हैं। जिसके लिये सब कुछ हो और जो स्वयं अन्य किसी के लिये न हो वही फल होता है। स्त्री, पुत्र, धन्य-धान्यादि सब पदार्थों की अपेक्षा सुख के लिये है। यदि कहा जाय कि सुख किस लिये? तो कहना पड़ेगा कि सुख और किसी के लिये नहीं, सुख-सुख ही के लिये चाहिये। अतः स्त्री-पुत्रादि सब सुख के साधन हैं और सुख फलात्मक है। ऐसे ही भगवान तो सुख के भी सुख होने से परम फलस्वरूप हैं क्योंकि परमआनन्द रसमूर्ति हैं। जैसे खाँड के खिलौने के समस्त अवयव खाँड के ही होते हैं, वैसे ही निखिल रसामृत मूर्ति भगवान श्रीकृष्ण के हस्तारविन्द, पादारविन्द, मुखारविन्द, सभी श्रीअंग परमानन्दमय ही हैं- “आनन्दमात्रं करपादमुखोदरादिः।” भगवान का श्रीमुखचन्द्र पूर्णानुराग रससार सागर समुद्भूत है। कमल जैसे प्राकृत सरोवर से उत्पनन होता है, वैसे भगवान का मंगलमय मनोहर श्रीवदनारविन्द पूर्णानुराग रससार समुद्भूत है। प्राकृत जल के सरोवर में पंक-मृण्मय होता है, उस पंक से उत्पन्न होने वाला पंकज कितना सौरस्य, सौगन्ध्य, सौन्दर्य सुस्पर्श सम्पन्न होता है? अब यदि क्षीरमय सरोवर हो तो उसमें पंक भी क्षीरसार नवनीतमय ही होगा और उससे समुत्पन्न पंकज का सौन्दर्य सौगन्ध्य, सौरस्यादि भी अलौकिक ही होगा। यहाँ तो श्री श्रीकृष्णमुख पंकज पूर्णानुराग रससार सरोवर समुद्रभूत है। अतः उस सरोवर का पंक भी पूर्णानुराग रससार सर्वस्व ही होगा। उससे प्रादुर्भूत श्रीकृष्णमुखेन्दीवर की शोभा, सौन्दर्य, माधुर्य, सौगन्ध्य, सौरस्य आदि का तो कहना ही क्या? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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