भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भगवान का सगुण, निर्गुण दोनों रूपों का कर्णरन्ध्र से ही हृदय में प्रवेश होता है। भगवान के मधुर मनोहर सोन्दर्यादि गुणगणों के श्रवण से निर्मल, विशुद्ध, गंगाजल के अखण्ड प्रवाह की तरह द्रुत मानसवृत्ति प्रवाह का श्रीभगवान की ओर चल पड़ना ही भक्ति है अथवा भगवान के दिव्य गुणगणों के श्रवणमात्र से लाक्षा की तरह अत्यन्त द्रुत स्वच्छ अन्तःकरण में भगवान की परम मनोहर मंगलमयीमूर्ति का दृढ़ अंकित होना ही भक्ति है-
इसका मूल कथा-श्रवण है। उधर (निर्गुणोपासना में) शब्द ब्रह्म (महावाक्यरूप) है। परमानन्द रसामृतमूर्ति भगवान ही कथासुधारूप में भावुकों के निरावरण कर्णकुहर द्वारा निर्मल हृदय पंकज में प्रविष्ट होते हैं और भावना से वृद्धिंगत होकर भक्त के मन, इन्द्रिय, प्राण, रोम-रोम में भरपूर होकर कथा सुधारूप में परिणत होते हैं। इस पर यदि कोई तर्क करे कि भावुक हृदय में व्यक्त भगवान की मूर्ति भावनामयी कही जा सकती है, यह कैसे कहा जा सकता है कि भगवान ही स्वयं भक्त हृदय में अभिव्यक्त होते हैं? परन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि -
के अनुसार भगवान को आना-जाना कहाँ है, वे तो सर्वव्यापक हैं, सर्वत्र हैं, केवल माया जवनिका से आवृत हैं, बस उस माया जवनिका के अपसारण का ही विलम्ब है, वे अपनी दिव्य महिमा से जहाँ उसका अपसारण करते हैं, वहीं उनका प्राकट्य हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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