भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
अतः भगवान ने कृपा कर अपने उद्बुद्ध संप्रयोगात्मक विप्रयोगात्मक उभयविध श्रृंगार रसात्मक स्वरूप को अधरसुधारूप से स्वाधरपल्लव पर विराजमान वेणु में भरकर उस वेणु के छिद्रों द्वारा निर्गत गीतपीयूष रूप से श्रीव्रजसीमन्तिनियों के निरावरण कर्णकुहर द्वारा उनके निर्मल स्वच्छ अन्तःकरण पंकज में प्रविष्ट होकर उनकी अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रिय, रोम-रोम में भरपूर होते हुए उनके अधरपल्लव तक परिपूर्ण हो गये, अब वह परिपूर्ण अधरसुधा उन श्रीव्रजांगनाओं के प्रयत्न निरपेक्ष ही अपने आप उनके अधरपल्लवों से “वर्हापीडं नटवरवपुः” इस गीत रूप में उच्छलित होकर अभिव्यक्त हो उठी। इसीलिये यह उस अनुभूत तत्त्व का उद्गार है, वर्णन नहीं। किसी अतिदिव्यपात्र में कोई सुमधुर रस भरा हुआ हो, और भरपूर होने से वायु के आघात से वह रस उच्छलित होकर पात्र में से निकल पड़ता है या स्वयं ही उस रस में कोई अलौकिक उफान आने से वह स्वयं उद्वेलित होकर छलक पड़ता है। ऐसी ही अवस्था भावुकों की होती है। वे लोग किसी उद्दीपनादि सामग्री को देखते ही अपने प्रियतम के स्मरण से विह्वल होकर पुलकित हो उठते हैं, देहभान भूल जाते हैं, पुनः-पुनः स्मरणजन्य भावना विशेष से उनके मानस पंकज में विराजमान मूर्तिमान वह दिव्यरस उनके रोम-रोम में भरपूर होकर स्वयं उनके मुख से शब्द ब्रह्मरूप कथा सुधा द्वारा बरबस अभिव्यक्त हो उठता है। श्रीहनुमान जी को भी भीम के दर्शन द्वारा जैसे अपने ध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य, श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र की स्मृति हुई वैसे ही भावुकों को किसी उद्दीपन सामग्री के दर्शन से अपने प्रियतम प्राणधन का स्मरण होता है। जैसे चन्द्र दर्शन से समुद्र उद्वेलित होता है, वैसे ही उताल तरंगों से परम सुन्दर श्रीमुखचन्द्र को देखकर श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिका के अन्तःकरण में विराजमान अनुरागरस सारसागर उद्वेलित होकर कथारूप में व्यक्त हो उठता है। यही अवस्था श्रीकृष्ण की भी है- वृषभानुनन्दिनी के दिव्य सौन्दर्यमय श्रीमुखचन्द्र की मनोहर शोभा का अवलोकन कर उनके मानसपंकज में विराजमान अनुरागरसामृत सिन्धु उद्वेलित-विक्षुब्ध हो उठता है। जैसे पूर्णिमा आदि अवसरों पर ही सागर की वैसी स्थिति होती है, वैसे ही प्रसंग विशेषों पर ही यह बात होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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