भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भगवान के अधर में रहने वाली सुधा भगवद्भोग्या कैसे हो? भगवान स्वयं अपने आप ही स्वाधीरोष्ठ स्थित सुधा का पान करें यह तो विपरीत है। तब यह हो कैसे? हाँ, इसका एक ही प्रकार है। जब भगवान के अधर पल्लवों से सम्बन्धित वेणु में भरपूर होकर उसके छिद्रों से निकलकर वह सुधा व्रजसीमन्तिनियों के निरावरण कर्णकुहरों द्वारा उनके अन्तःकरण में निविष्ट होकर, वहाँ से उनके अन्तःकरण, प्राण, अन्तरात्मा, इन्द्रिय, रोम-रोम में भरपूर होकर मुख में आकर उनके अधर पल्लवों द्वारा वर्णित हो, तभी वह सुधा भगवद्भोग्या हो। यहाँ कुछ लोग सन्देह करते हैं कि यह असंगत है क्योंकि पहले श्लोक में “चूकूम वेणुम्” से वेणु का कूजन कहा गया और दूसरे श्लोक में “आश्रुत्य वेणुगीतम” से वेणुगीत कहा गया यह कैसे? कूजन तो अर्थसम्बन्धविहीन ध्वनिमात्र है किन्तु गीत का तो कुछ अर्थ होता है। ऐसे स्थिति में पहले श्लोक में जिसे कूजन कहा गया, दूसरे ही श्लोक में उसकी ही गीतोक्ति असंगत है। एवंच जब स्मरवेग से विक्षिप्त मनस्क होने के कारण वर्णन न कर सकी- “तद्वर्णयितुमारब्धा। नाशकन् स्मरवेगेन।” तब बीच में “बर्हापीडं नटवरवपुः।” इत्यादि वर्णन और “इति वेणुरवं श्रुत्वा” यह सब कैसे? इसका समाधान यह है कि यहाँ पहले श्लोक में श्रीकृष्ण का श्रीवृन्दावन प्रवेश वर्णित है, दूसरे में उनके द्वारा वेणुकूजन। इस कूजन द्वारा अन्तःकरण में श्रीकृष्णस्वरूप का अनुभव करके ज्यों ही कोई व्रजांगना अपनी सखियों से अपने अनुभव का वर्णन करने लगीं, त्यों ही भावनाजन्य स्मरवेग से मूर्च्छित हो गयीं। फिर सावधान होने पर वर्णन का प्रयत्न करने पर पुनः श्रीकृष्ण का स्मरण हुआ, क्योंकि वर्णन करने के लिये उस वर्णनीय तत्त्व का पहले स्मरण होना स्वाभाविक था। किन्तु उसका स्मरण होने से पुनः मूर्च्छित हो गयीं। इस तरह जब-जब वर्णन करने का प्रयत्न करती हैं, तब-तब स्मरवेग के कारण मूर्च्छा आ जाने से वर्णन करने में असमर्थ हैं। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण को तो उनसे वर्णन कराना इष्ट है क्योंकि जब व्रजांगनाओं के द्वारा उसका वर्णन हो, तभी वह भगवान की अधरसुधा भगवद्भोग्या रूप में अभिव्यक्त हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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